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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ७७ मूलाचार की प्राचीनतम मूल पाण्डुलिपि इनके (आल्सडोर्फ के) पास सुरक्षित है। ये उसी पर शोध-कार्य कर रहे हैं। मुनिश्री तथा उपाध्ये जी को इस बात का बड़ा दुःख भी हुआ कि मूल पाण्डुलिपि हमारे बीच न रहकर, वह सात समुद्र पार चली गई। किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि "वह हमारे पास नहीं है, उसका हमें दुःख अवश्य है किन्तु यदि वह भारत में रहती, तो शायद ही लोग उसे इतनी सुरक्षा प्रदान कर पाते, जितनी सुरक्षा उसे जर्मनी में मिल रही है। लगभग २०-२५ वर्ष पूर्व मुझे पेरिस (फ्रांस) से एक पार्सल मिला था। मैं आश्चर्य चकित रह गया कि पेरिस में ऐसा कौन सा सहृदय व्यक्ति है, जो मुझे जानता है, और जिसने यह उपहार भेजा है ? उसे खोलकर देखा, तो उसमें से निकली महाकवि रइधू कृत अपभ्रंश के "श्रीपालचरितकाव्य" की पेरिस में सुरक्षित पाण्डुलिपि की सुन्दर फोटो प्रति, जिसकी मैं एक लम्बे अरसे से खोज कर रहा था। प्रेषिका पेरिस की एक महिला-प्रोफेसर बलबीर थी। बात यह थी कि सन् १६६४-६५ में रइधू सम्बन्धी मेरा कोई लेख, जिसमें कि मैंने रइधू कृत अपभ्रंश के श्रीपालचरित को अनुपलब्ध घोषित कर दिया था, वह तथा मेरे द्वारा सम्पादित प्रकाशित रइधू कृत अणथमिउकहा की एक प्रति किसी प्रकार उस प्रोफेसर महिला के हाथ लग गई होगी, इसी लघु-पुस्तिका तथा मेरे लेख ने उसे बहुत प्रभावित किया और उसके आधार पर उसने स्वयं कुछ लेख भी लिखे। इन सभी सूचनाओं के साथ उसने श्रीपालचरित की उक्त फोटो-कापी (जिसकी पाण्डुलिपि पेरिस के शास्त्र-भण्डार में सुरक्षित थी) मुझे भेजी और आरा (बिहार) आकर उसने मुझसे भेंट करने की अभिलाषा भी व्यक्त की थी। आज हम कहते हैं कि हमारा "गन्धहस्तिमहाभाष्य" नामका ग्रन्थ खो गया है। अपभ्रंश-ग्रन्थों की प्रशस्तियों में उल्लिखित सैकड़ों कवि और उनके द्वारा विरचित हजारों ग्रन्थों के न मिलने से हम लोग सहज ही कह देते हैं कि वे नष्ट हो गए। बहुत सम्भव है कि समय के फेर से तथा हमारी असावधानी से कुछ ग्रन्थ नष्ट भी हो चुके हों, किन्तु मुझे विश्वास है कि अधिकांश ग्रन्थ नष्ट नहीं हुए होंगे। जैसा कि मैं पूर्व में कह चुका हूँ कुछ ग्रन्थ विदेशों में विशेषकर जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, चीन, जापान, तिब्बत, मंगोलिया, नेपाल, मिस्र, ईरान तथा दक्षिण एवं मध्य एशियाई देशों में सुरक्षित होंगे, उनकी खोज करना आवश्यक है। वर्तमान में हमारे समाज के अनेक श्रीमन्त, धीमन्त एवं भट्टारकगण घनी-घनी विदेशयात्राएँ कर रहे हैं। यदि वे अपने भ्रमण-कार्यक्रमों में से एक कार्यक्रम विदेशों में संग्रहीत जैन-पाण्डुलिपियों का पता लगाकर उनका विवरण भी समाज को लाकर देते रहें, तो वह जिनवाणी की बड़ी भारी सेवा मानी जायेगी। ___ हमारे यहाँ ही देश के कोने-कोने में जैन-मन्दिरों एवं व्यक्तिगत संग्रहालयों में अगणित जैन पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं, जिनका पूरा लेखा-जोखा अभी तक नहीं हो पाया है। क्या ही अच्छा हो कि प्रकाशित एवं उपलब्ध ग्रन्थों को बार-बार प्रकाशित करते रहने की अपेक्षा अप्रकाशित ग्रन्थों की खोज, सूचीकरण, सुरक्षा तथा आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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