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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख उसी दिन उस घमण्डी राजा की राज्य-सीमा छोड़कर जंगल में डेरा डाल दिया था। वहाँ निर्जन-वन में उन्हें एक वृक्ष के नीचे अकेला लेटा हुआ देखकर अम्मइ और इन्द्र नामक पुरुषों द्वारा उसका कारण पूछे जाने पर पुष्पदन्त ने स्पष्ट कहा था-"गिरि-कन्दराओं में घास-फूस खाकर रह जाना अच्छा, किन्तु दुर्जनों की टेढ़ी-मेढ़ी भौंहे सहना अच्छा नहीं। माता की कोख से जन्मते ही मर जाना अच्छा, किन्तु किसी राजा के भ्रूकुंचित नेत्र देखना और उसके कुवचन सुनना अच्छा नहीं, क्योंकि राजलक्ष्मी डुलते हुए चँवरों की हवा से उनके (राजाओं के) सारे गुणों को उड़ा देती है और अभिषेक के जल से उनके सारे गुणों को धो डालती हैं, उन्हें विवेकविहीन बना देती है और उन्हें मूर्ख बनाकर वह (राजलक्ष्मी) स्वयं ही दर्प से फूली रहती हैं। इसीलिए, राजदरबार को छोड़कर मैंने इस निर्जन वन में शरण ली है ६६ ।"
राष्ट्रकूट-राजा कृष्णराज (तृतीय) के महामन्त्री भरत कवि पुष्पदन्त के आग्नेय स्वभाव को जानता था, फिर भी वह उन्हें उस निर्जन-वन से विनती करके अपने घर ले आया और सभी प्रकार का सम्मान एवं विश्वास देकर साहित्य-रचना के लिए उन्हें प्रेरित किया था।
__"तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणालंकारु" के प्रथम भाग की समाप्ति के बाद कवि जब सहसा ही कुछ खिन्न हो उठा, तब भरत ने कवि से निवेदन किया-"हे महाकवि, आज आप खिन्न क्यों हैं ? क्या काव्य-रचना में आपका मन नहीं लग रहा अथवा मुझसे कोई अपराध बन पड़ा है या फिर अन्य कोई कारण है ? आपकी जिह्वा पर तो सरस्वती का निवास है, फिर आप सिद्ध-वाणी-रूपी धेनु का नवरस युक्त क्षीर हम लोगों के लिये वितरित क्यों नहीं कर रहे हैं ।"
भरत की इस विनम्र प्रार्थना एवं विनयशील स्वभाव के कारण फक्कड़ एवं अक्खड़ महाकवि पुष्पदन्त बड़ा प्रभावित हुआ और उसने बड़ी ही आत्मीयता के साथ भरत से कहा :- "हे भाई, मैं धन को तिनके के समान गिनता हूँ, मैं उसे नहीं लेता। मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हूँ और इसी कारण से तुम्हारे राजमहल में रुका हूँ ६८ । इतना ही नहीं, कवि ने उसके विषय में पुनः लिखा है:-"भरत स्वयं ही सन्तजनों की तरह सात्विक जीवन-व्यतीत करता है, वह विद्या-व्यसनी है, उसका निवास स्थान संगीत, काव्य एवं गोष्ठियों का केन्द्र बन गया है। उसके यहाँ अनेक प्रतिलिपिकार ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करते रहते हैं। उसके घर में लक्ष्मी एवं सरस्वती का अपूर्व समन्वय है ।"
कमलसिंह संघवी गोपाचल के तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह का महामात्य था। उसकी इच्छा थी कि वह प्रतिदिन किसी नवीन काव्य-ग्रन्थ का स्वाध्याय किया करे। अतः वह राज्य के महाकवि रइधू से निवेदन करता है:-" हे सरस्वती,-निलय, शयनासन,
६६. महापुराण, १/३/४-५ ६७. महापुराण, ३८/३/६-१० ६८. महाकवि पुष्पदन्त, पृ. ८१ ६६. महाकवि पुष्पदन्त पृ. ८१.