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________________ ७० जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख अपभ्रंश- पाण्डुलिपियों में वर्णित कुछ रोचक तथ्य: समस्यापूर्ति - परम्परा - अपभ्रंश-साहित्य में समस्या-पूर्ति के रूप में कुछ रोचक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं। इन समस्या-पूर्तियों के आयोजन राजदरबारों या सामान्य-कक्षों में हुआ करते थे। इनका रूप प्राय: वही था, जो आजकल के "इण्टरव्यू " ( Interview) का है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के बाह्य-परीक्षण के तो अनेक माध्यम थे, किन्तु उसके काव्य- कौशल, ऋजुता, मृदुता, चतुराई, प्रतिभा, आशु कवित्व, प्रत्युत्पन्नमतित्व आदि के परीक्षणार्थ समस्यापूर्ति की पद्धति प्रचलित थी। समस्यापूर्ति सम्बन्धी पद्यों से व्यक्ति के स्वभाव, विचारधारा, वाणी - माधुर्य, उसकी कुलीनता, परिवेश एवं वातावरण का भी सहज ही अनुमान लगा लिया जाता था । महाकवि रइधू कृत ‘"सिरिवालचरिउ" के एक प्रसंग ६५ के अनुसार, कोंकणपट्टन-नरेश यशोराशि की १६०० राजकुमारियों में से आठ हठीली एवं गर्वीली राजकुमारियों ने प्रतिज्ञा की थी कि वे ऐसे व्यक्ति के साथ अपना विवाह करेंगी, जो उनकी समस्याओं की पूर्ति गाथा-छन्द में करेगा । उनकी एक कठिन शर्त यह भी थी कि जो भी प्रतियोगी उनके उत्तर नहीं दे सकेगा, उसे शूली पर चढ़ा दिया जायेगा । फलस्वरूप, हीनबुद्धि व्यक्तियों ने तो उसमें भाग लेने का साहस ही नहीं किया और जो प्रतियोगी अपनी हेठी बाँधकर भाग लेने आये भी, उन्हें शूली पर झूल जाना पड़ा। चम्पापुर नरेश श्रीपाल अपनी यात्रा के समय जब उन राजकुमारियों का यह समस्त वृतान्त सुनता है, तब वह भी साहस बटोरकर अपना भाग्य आजमाने के लिये इस प्रतियोगिता में सम्मिलित होने हेतु चल पड़ता है । राजदरबार में सर्वप्रथम राजकुमारी सुवर्णदेवी उससे जिन समस्याओं की पूर्ति के लिए अनुरोध करती हैं, उनमें से दो के उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं । यथा (9) समस्या गउ पेक्खंतह सव्वु । (अर्थात् सब कुछ देखते ही देखते नष्ट हो जाता है।) जोव्वण विज्जा संपयहं किज्जइ किं पिण गव्वु । पूर्ति जम रुट्ठइ णट्ठि एहु जगु गउ पेक्खंतहु सव्वु । । अर्थात् यौवन, विद्या एवं सम्पत्ति पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि इस संसार में यमराज जब रूठ जाता है, तब "सब कुछ देखते ही देखते नष्ट हो जाता है।" भइ एहु । (अर्थात् पुण्य से ही ये सब प्राप्त होते (२) समस्या पुणे हैं। पूर्ति विज्जा-जोव्वण-रूव-धणु-परियणु कय- हु । बल्लहजण मेलावर पुण्णें लब्भइ एहु । अर्थात् संसार में विद्या, यौवन, सौन्दर्य, धन, परिजनों का स्नेह एवं प्रियजनों का संयोग ये सभी "पुण्य से ही प्राप्त होते हैं।" ६५. सिरिवालचरिउ (अद्यावधि अप्रकाशित) ८/६/१-८
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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