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देव-त्थुदी (देव-स्तुति, अनुष्टुप-छन्द)
णेत्ताणि मे किदत्थाणि, जम्मं जादं च सप्फलं।
विलीणं दुरितं सव्वं, जिणस्स दंसणेण य॥1॥ अन्वयार्थ-(जिणस्स दंसणेण य) जिनदेव के दर्शन से (अज्ज) आज (मे) मेरे (णेत्ताणि किदत्थाणि) नेत्र कृतार्थ हो गये (जम्मं जादं) जन्म (सप्फलं) सफल हो गया (च) तथा (दुरितं सव्वं विलीणं) सभी पाप नष्ट हो गए।
अर्थ-जिनदेव के दर्शन से आज मेरे नेत्र कृतार्थ हो गए, जन्म सफल हो गया तथा सभी पाप नष्ट हो गए।
अणंतफलं-पावंति, त्थुदिं कुव्वंता सण्णरा।
ण हि जिणिंद-भत्तीए, किंचि सेट्ठयरं जगे॥2॥ अन्वयार्थ-(थुदिं कुव्वंता) स्तुति करते हुए (सण्णरा) श्रेष्ठ मनुष्य (अणंतफलं-पावंति) अनंत फल पाते हैं (हि) वस्तुतः (जिणिंद-भत्तीए) जिनेन्द्र भक्ति से (जगे) जगत में (सेट्ठयरं) श्रेष्ठतर (किंचि) कुछ (ण) नहीं है।
अर्थ-स्तुति करते हुए श्रेष्ठ मनुष्य अनंत फल पाते हैं, वस्तुतः जिनेन्द्र भक्ति से श्रेष्ठतर लोक में कोई दूसरी वस्तु नहीं है।
वढी हवेदि णाणस्स जसो फुरदि णिम्मलो।
मोहतमो विणस्सेदि, भावेण दंसणेण य॥3॥ अन्वयार्थ-(भावेण दंसणेण) भावपूर्वक जिनेन्द्र भगवान का दर्शन करने से (णाणस्स वुड्ढी हवेदि) ज्ञान की वृद्धि होती है (णिम्मलो जसो फुरदि) निर्मल यश स्फुरायमान होता है (मोहतमो च विणस्सेदि) और मोहरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है।
अर्थ-भावपूर्वक जिनेन्द्र भगवान का दर्शन करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, निर्मल यश स्फुरायमान होता है और मोहरूपी अंधकार नष्ट हो जाता है।
जिणिंद त्थुदि-सीलस्स, णिच्चं वंदणकारिणो। गुणा चत्तारि वड्ढंते, आऊ विज्जा बलं जसो॥4॥
देव-त्थुदी :: 91