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________________ सोलहवें तीर्थंकर (भुवण-तिलयरूवं) भुवन के तिलक रूप (धीर-वीरं गहीरं) धीर-वीर-गंभीर (भरहं विजित्ता) भरतक्षेत्र जीतकर (पुण) पुनः (अप्परूवे पदिलैं) आत्मरूप में अच्छी तरह लीन [ऐसे] (सयल गुण णिहाणं) समस्त गुणों के निधान (संतिणाहं णमामि) श्री शांतिनाथ को नमन करता हूँ। अर्थ-बारहवें कामदेव, पाँचवें चक्रवर्ती व सोलहवें तीर्थंकर इन तीन पदों से युक्त भुवन के तिलक स्वरूप, अत्यन्त धीर-वीर व गंभीर, सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त कर राज्य करने के बाद मुनि बनकर आत्मस्वरूप में अच्छी तरह लीन होने वाले तथा सकल-गुणों के निधान श्री शांतिनाथ भगवान को मैं नमन करता हूँ। विगलिदमद-मोहंते जहाजादरूवं, णयण-पध-मुपात्तं संतिरासिं ददाति। चरण-कमल-झाणं छिज्जदेसव्वपावं, सयल-गुणणिहाणंसंतिणाहणमामि ॥4॥ अन्वयार्थ-(विगलिद-मद-मोहं) मद मोह से रहित (ते) आपका (जहाजादरूवं) यथाजातरूप (णयणपध-मुपात्तं संतिरासिं ददाति) नयनपथ को प्राप्त होकर शांतिराशि देता है (चरणकमल झाणं) चरण कमलों का ध्यान (छिज्जदि सव्वपावं) सभी पापों को नष्ट करता है। [उन] (सयल गुण णिहाणं) समस्त गुणों के निधान (संतिणाहं णमामि) श्री शांतिनाथ को नमन करता हूँ। ___ अर्थ-आपका मद व मोह से रहित यथाजात नग्न दिगम्बर रूप देखते ही अपूर्व शांति प्राप्त होती है, आपके चरणों का ध्यान सभी पापों को नष्ट कर देता है, ऐसे सकल गुणों के निधान श्री शांतिनाथ भगवान को मैं नमन करता हूँ। णिहिलकलुसभावं चित्तदोसेहिंजस्स, णयगुणगणगीदो भाविदोणो कदावि। तदपि सरण-पत्तं दुक्खदो रक्खदे जो, सयल-गुणणिहाणं संतिणाहं णमामि॥5॥ अन्वयार्थ-(जस्स) जिसके (चित्तदोसेहिं) चित्त के दोष से (णिहिलकलुसभावं) सम्पूर्ण कलुष दोषों का सद्भाव है [जिसने आपके] (ण गुणगणगीदो) गुणसमूह का गान नहीं किया (य) और (भाविदो णो कदावि) न कभी गुणों का चिंतन किया (तदपि) फिर भी (सरणपत्तं) शरण प्राप्त की (जो) जो (दुक्खदो रक्खदे) दुःखों से रक्षा करते हैं [उन] (सयल-गुण-णिहाणं) समस्त गुणों के निधान (संतिणाहं णमामि) श्री शांतिनाथ को नमन करता हूँ। ____ अर्थ-जिस मनुष्य के हृदय में समस्त दोषों का सद्भाव है, जिसने आपके गुण समूह का गान नहीं किया और न ही कभी चिंतन किया, यदि ऐसा व्यक्ति भी आपकी शरण को प्राप्त हो जाए तो भी आप उसकी दुःखों से रक्षा करते हैं, ऐसे सकल गुणों के धाम श्री शांतिनाथ भगवान को मैं नमन करता हूँ। संतिणाह-त्थुदी :: 49
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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