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अर्थ - कषाय वासनातीत जीवों का ताप हरनेवाले, शांत, तपस्वी, सौम्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
किन्हं - णीलं च कावोदं, लेस्सा असुह - वज्जिदं । पीय- पोम्म - सिदं जुत्तं वंदे सम्मदिसायरं ॥75 ॥
अन्वयार्थ – (किण्हं-णीलं च कावोदं, लेस्सा असुह - वज्जिदं) कृष्ण नील कापोत तीन अशुभ लेश्याओं से रहित पीत पद्म शुक्ल लेश्या युक्त (सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - कृष्ण नील कापोत तीन अशुभ लेश्याओं से रहित पीत पद्म शुक्ल लेश्या युक्त श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
णिरातंकं तवे दक्खं, चदुसंघस्स णायगं । सव्वलोगे सुरम्मं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥76॥
अन्वयार्थ - ( णिरातंकं) निरातंक (तवे दक्खं) तप में दक्ष ( चदुसंघस्स णायगं) चतुर्विध संघ के नायक (सव्वलोगे सुरम्मं च) सर्वलोक में सुरम्य ( सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
सर्वलोक में सुरम्य श्री
अर्थ - निरातंक, तप में दक्ष, चतुर्विध संघ के नायक, सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
संघसेव्वं जगस्सेव्वं, समणसेव्वं पंडिदं । जगप्पसिद्ध-जोईसं वंदे सम्मदिसायरं ॥77॥
अन्वयार्थ - ( संघसेव्वं ) संघ सेव्य ( जगस्सेव्वं ) जगत सेव्य (समणसेव्वं) श्रमणसेव्य (पंडिदं) पंडित मनस्वी ( जगप्पसिद्ध) जगत् प्रसिद्ध योगीश्वर (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - संघ सेव्य, जगत सेव्य, श्रमण सेव्य, पंडित, जगत प्रसिद्ध योगीश्वर श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
थिरबुद्धि महासंतं, धीरं वीरं सुपत्तयं । संसारभूसणं मुक्खं वंदे सम्मदिसायरं ॥78 ॥
अन्वयार्थ - (थिरबुद्धि) स्थिरबुद्धि (महासंतं) महाशांत (धीरं वीरं सुपत्तयं) धीर वीर सुपात्र (संसारभूसणं मुक्खं) संसार भूषण मुख्य (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - स्थिरबुद्धि, महाशांत, धीर-वीर, सुपात्र, संसारभूषण व मुख्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
372 :: सुनील प्राकृत समग्र