________________
सिसू व्व सहजाणंद, उच्छाहं जोव्वर्णविव।
बुड्ढो तुल्लणुभूदी य, वंदे सम्मदिसायरं ॥36॥ अन्वयार्थ (सिसू व्व सहजाणंदं) शिशु के समान सहजानंद (उच्छाहं जोव्वर्णविव) युवक के समान उत्साह (य) और (बुड्ढो तुल्लणुभूदी) वृद्ध के तुल्य अनुभूतिवाले (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
अर्थ-शिशु के समान सहजानंद, युवक के समान उत्साह और वृद्ध के तुल्य अनुभूतिवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
णेव जुण्णस्स-णिव्वाही, णव्वाचीण-पवाहगो।
समीचीणं समुव्वाही, वंदे सम्मदिसायरं ॥37॥ अन्वयार्थ जो केवल (णेवजुण्णस्स णिव्वाही) पुराने का निर्वहन करनेवाले नहीं हैं (णव्वाचीण-पवाहगो) और न केवल अर्वाचीन-नए के प्रवाहक हैं अपितु (समीचीणं समुव्वाही) समीचीन का समुद्वहन करनेवाले (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
अर्थ-जो केवल पुराने का निर्वहन करनेवाले नहीं है और न केवल अर्वाचीननए के प्रवाहक हैं, अपितु समीचीन का समुद्वहन करने वाले हैं, उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
पगदि-पालगो पण्णो, वेज्जो विक्किदिवारणे।
संकदिरक्खणे दक्खो, वंदे सम्मदिसायरं ॥38॥ अन्वयार्थ-(पगदि पालगो पण्णो) प्रकृति के पालने में प्रज्ञ (विक्किदिवारणे वेजो) विकृति का निवारण करने में वैद्य (संकदिरक्खणे दक्खो) संस्कृति का रक्षण करने में दक्ष (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
अर्थ-प्रकृति के पालने में प्रज्ञ, विकृति का निराकरण करने में वैद्य, संस्कृति के रक्षण में दक्ष श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
सव्वेसिं गुण-संपेक्खिं , सुगुरु-गुणगायकं।
सदोसवारणे सेठे, वंदे सम्मदिसायरं ॥39॥ अन्वयार्थ-(सव्वेसिं गुण-संपेक्खिं) सबके गुण देखनेलवाले (सुगुरु गुणगायकं) सुगुरुओं के गुण गानेवाले (सदोसवारणे सेट्ठ) स्वदोष दूर करने में श्रेष्ठ (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ।
अर्थ-सबके गुण देखनेवाले, सुगुरुओं के गुण गानेवाले, स्वदोष दूर करने में श्रेष्ठ श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
सम्मदि-सदी :: 363