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अर्थ - नवीन स्वप्नों को देखनेवाले, नवीन तप योजक, नवीन शिखर का स्पर्श करनेवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
मेहावी बुद्धिए अत्थि, मणस्सी मणसा तहा । वचस्सी णिम्मलो वाचा, वंदे सम्मदिसायरं ॥28॥
अन्वयार्थ - (मेहावी बुद्धिए अत्थि) जो बुद्धि से मेधावी (मणस्सी मणसा तहा) मन से मनस्वी है तथा ( वचस्सी णिम्मलो वाचा) निर्मल वचन से वचस्वी हैं उन (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ- जो बुद्धि से मेधावी, मन से मनस्वी, निर्मल वचन से वचस्वी हैं उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
धम्माणुसासणे सत्था, हिदाणुपोसणे पिदा । सत्तिदाणे गुरु सत्ती, वंदे सम्मदिसायरं ॥ 29 ॥
अन्वयार्थ – (धम्माणुसासणे सत्था ) धर्मानुशासन में शास्ता (हिदाणुपोसणे पिदा) हित का पोषण करने में पिता व (सत्तिदाणे) शक्ति देने में (गुरु सत्ती ) जो गुरु शक्ति समान हैं उन (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - धर्मानुशासन में शास्ता, हित का पोषण करने में पिता व शक्ति देने में जो गुरु शक्ति समान हैं उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
दिव्वामिदज्झरं चंदं, दिव्वजोदि-धरं रविं ।
दिव्वसत्तिभरं कोसं वंदे सम्मदिसायरं ॥30॥
अन्वयार्थ— (दिव्वामिदज्झरं चंदं) दिव्य अमृत झरानेवाले चन्द्रमा (दिव्वजोदिधरं रविं) दिव्य ज्योति को धारण करने वाले सूर्य (दिव्वसत्तिभरं कोसं ) दिव्य शक्ति भरनेवाले खजाने ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - दिव्य अमृत झरानेवाले चन्द्रमा, दिव्य ज्योति को धारण करने वाले सूर्य, दिव्य शक्ति भरनेवाले खजाने श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ।
जेह - संघ - महाधीसं, भारहगोरवं मुणिं ।
विभूदि - विस्स-वीसासं, वंदे सम्मदिसायरं ॥31॥
अन्वयार्थ – (जेण्ह-संघ - महाधीसं ) जैन संघ के महास्वामी ( भारहगोरवं
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मुणि) भारत गौरव मुनि (विभूदि - विस्स-वीसासं) विश्व की विश्वसनीय विभूति (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ ।
अर्थ - जैन संघ के महास्वामी, भारत गौरव मुनि, विश्व की विश्वसनीय विभूति श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ ।
सम्मदि - सदी :: 361