________________
भावार्थ-देवता विषयासक्त हैं, नारकी दुःख दूषित हैं, तिर्यंच ज्ञानहीन हैं, मात्र मनुष्य ही धर्म योग्य हैं।
जैन शासन वर्धमान हो लोगे वड्ढदु संती, तहा वच्छल्लभावणा। वड्ढदु अत्तिया संती, वड्ढदु जिणसासणं ॥57॥
अन्वयार्थ-(लोगे वड्ढदु संती तहा वच्छल्लभावणा) लोक में शान्ति तथा वात्सल्यभावना बढ़े (अत्तिया संती वड्ढदु) आत्मिक शांति बढ़े तथा (वड्ढदु जिणसासणं) जैनशासन वर्धमान हो।
भावार्थ-लोक में शांति वात्सल्यभावना तथा आपसी प्रेम बढ़े। आत्मिक शांति बढ़े और जिनशासन वर्धमान हो।
। इदि आइरिय सुणीलसायरकिदो वयणसारो समत्तो। . । इस प्रकार आचार्य सुनीलसागर कृत वचनसार समाप्त हुआ।
वयणसारो :: 351