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का इच्छुक है किन्तु समभाववाला नहीं, (सो किं पावेइ वंछिदं ?) वह क्या वांछित फल को पाएगा?
भावार्थ–धार्मिक व्यक्ति यदि नैतिक नहीं है, दूसरों के दोष देखता है पर अपने नहीं, शांति का इच्छुक है, किन्तु समभाव वाला नहीं है, तो क्या वह वांछित फल को पाएगा? अर्थात् नहीं पाएगा।
पहले नैतिक बनो
णीदिगो भोदिग-पुव्वं, भाविगो बुद्धिग पुरा । सविगासं पुरा - अण्ण-विगासं कुणदु सुधि ! ॥43 ॥
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अन्वयार्थ – (सुधि!) हे ज्ञानी ! ( णीदिगो भोदिग - पुव्वं) भौतिक बनने के पूर्व नैतिक बनो (बुद्धिग पुरा भाविगो) बुद्धिजीवी बनने के पूर्व भाविक बनो ( अण्ण - विगासं पुरा ) दूसरों के विकास से पूर्व (सविगासं) स्वविकास करो । भावार्थ - हे ज्ञानी ! भौतिक बनने के पूर्व नैतिक बनो । बुद्धिजीवी बनने के पूर्व भाविक बनो। दूसरों के विकास के पूर्व आत्मविकास करो ।
सिद्धि के बिना प्रसिद्धि से क्या लाभ?
सिद्धिं विणा पसिद्धी किं, धिदिं विणा धियाए वि ।
सुद्धिं विणा समिद्धी किं, सामं किमा तवेण य ॥44 ॥
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अन्वयार्थ – (सिद्धिं विणा पसिद्धी किं ?) सिद्धि बिना प्रसिद्धि से क्या लाभ? (धिदिं विणा धियाए वि) धृति बिना बुद्धि से क्या लाभ? (सुद्धिं विणा समिद्धी किं) शुद्धि बिना समृद्धि से क्या लाभ? (सामं विणा तवेण य) और साम्यभाव के बिना तप से क्या लाभ?
भावार्थ – सिद्धि बिना प्रसिद्धि से क्या लाभ? धैर्य बिना बुद्धि से क्या लाभ? शुद्धि बिना समृद्धि से क्या लाभ? और साम्यभाव बिना तप से क्या लाभ? प्रवृत्तियों की वृत्ति
णिबुद्धी य पसुवुत्ती, कुबुद्धी दाणवी दसा ।
सुबुद्धी माणुसी वृत्ती, परा बुद्धिइ सिज्झ दे ॥145 ॥
अन्वयार्थ – (णिबुद्धी पसुवृत्ती) निर्बुद्धि पशुवृत्ति है ( कुबुद्धी दाणवी दसा )
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कुबुद्धि दानवी दशा है (सुबुद्धी माणुसी वृत्ती) सुबुद्धि मनुष्यवृत्ति है (य) और (परा बुद्धि सिज्झ ) श्रेष्ठ बुद्धि से सिद्ध होता है।
भावार्थ – बुद्धिरहित प्रवृत्ति पशुवृत्ति के समान है, कुबुद्धिपूर्ण प्रवृत्ति दानवी
वयणसारो :: 347