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धर्म नष्ट हो जाता है तथा (विवेगो विलयं जादि) विवेक बुद्धि भी विलय को प्राप्त हो जाती है
भावार्थ-विषयों से ठगे गये जीवों के गृद्धता (तृष्णा) खूब बढ़ती है, शांति (संतोष) व धर्मभावना नष्ट हो जाती है तथा विवेक बुद्धि भी विलय (नाश) को प्राप्त हो जाती है।
उच्छिष्ठ हैं सभी भोग अदिठं किं अपुढें वा, अणग्यादं किमस्सुदं।
जं ण अस्सादियं वत्थु, णवमिव-किमिच्छसि ॥36॥ अन्वयार्थ हे जीव! (अदिह्र किं) क्या अदृष्ट रहा (किं अपुढें) क्या अस्पृष्ट रहा (अणग्घादं किमस्सुदं) क्या अनघ्रात व अश्रुत रहा (वा) अथवा (जंण अस्सादियं वत्थु) कौनसी वस्तु अस्वादित रही? फिर (णवमिव-किमिच्छसि) पुनः नए के समान क्यों चाहते हो।
भावार्थ-हे जीव! इस संसार में वह कौनसी वस्तु शेष है, जो बीत चुकी अनंत पर्यायों में तुमने देखी न हो, स्पर्श न की हो, सूंघी न हो, सुनी न हो और चखी न हो? अर्थात् कोई भी नहीं। फिर उनमें नये के समान इच्छा (प्रवृत्ति) क्यों करते हो।
जीव मोहवश उच्छिष्ट को भोगता है अत्थि अणादिदो जीवो, संसारे परिवट्टणे।
चत्तं पि परिभुंजेदि, मोहादीहिं मुहू अहो ॥37॥ अन्वयार्थ-(अहो) अहो! (परिवट्टणे संसारे) परिवर्तनशील संसार में (जीवो) जीव (अणादिदो) अनादि से (अत्थि) है (और वह) (मोहादीहिं) मोह आदि से वश हो (मुहू) बार-बार (चत्तं वि परिभुंजेदि) त्यागकर भी भोगता है।
भावार्थ-अहो! पंच परिवर्तन रूप इस संसार में जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है और वह मोह आदि विकारों के वश होकर पुनः-पुनः उच्छिष्ट के समान भोगे हुए भोगों को ही भोग रहा है।
विषयजाल में मोही बंधते हैं आसाजुत्तेण वा दीणा, बझंते विहगा जहा।
तहा विसयजालेण, बझंते मोहिणो जणा॥38॥ अन्वयार्थ-(आसाजुत्तेण) आशायुक्त हो (जहा) जैसे (दीणा) दीन (विहगा) पक्षी (बज्झंते) बंध जाते हैं (तहा) उसी प्रकार (विसयजालेण) विषय जाल से (मोहिणो जणा) मोही जन (बझंते) बंध जाते हैं।
णियप्पज्झाण-सारो :: 315