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तथा (परे मोक्खस्स हेदुओ) बाद वाले दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं।
भावार्थ-ध्यान के चार भेद हैं-आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान। इनमें से पूर्व के दो ध्यान दु:ख के तथा बाद वाले दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं। चार प्रकार के आर्त ध्यान दुःख तथा चार प्रकार रौद्रध्यान क्रूरता से परिपूर्ण होने के कारण संसार परिभ्रमण के कारण हैं, जबकि शुभ व शुद्ध भावरूप धर्म, शुक्ल ध्यान मोक्ष के कारण हैं।
धर्मध्यान के भेद आणापाय-विवागा य, संठाणं विचया चऊ।
धम्मज्झाणस्स भेदा य, सुह-सुद्धेहि संजुदा॥4॥ अन्वयार्थ-(आणापाय विवागा य संठाणं विचया चऊ) आज्ञा अपाय विपाक संस्थान विचय ये चार (धम्मज्झाणस्स भेदा) धर्मध्यान के भेद हैं (सुह-सुद्धेहिसंजुदा) ये शुभ व शुद्ध भावों से संयुक्त हैं।
भावार्थ-आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय ये धर्मध्यान के चार भेद हैं, ये शुभ शुद्ध भावरूप होते हैं।
संस्थान विचय के भेद पिण्डत्थं च पयत्थं च, रूवत्थं च अरूवियं।
संठाण-विचयज्झाणं, कल्लाणत्थं परूविदं ॥5॥ अन्वयार्थ-(पिण्डत्थं च पयत्थं च रूवत्थं च अरूवियं) पिण्डस्थ, पदस्थ रूपस्थ व रूपातीत के भेद से (संठाण-विचयज्झाणं, कल्लाणत्थं परूविदं) संस्थान विचय धर्मध्यान के चार भेद जीवों के कल्याण के लिए आचार्यों ने कहे हैं।
भावार्थ-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ व रूपातीत के भेद से संस्थान विचय धर्मध्यान के चार भेद जीवों के कल्याण के लिए आचार्यों ने कहे हैं।
पिण्डस्थ आदि की परिभाषा पिंडत्थं अप्पचिंता य, पयत्थं मंतसुत्तयं ।
रूवत्थं चेयणारूवं, रूवादीदं णिरंजणं ॥6॥ अन्वयार्थ-(अप्प-चिंता) आत्मचिंता (पिंडत्थं) पिण्डस्थ (मंतसुत्तयं) मंत्रसूत्रात्मक(पयत्थं) पदस्थ (चेयणारूवं) चेतनारूप (रूवत्थं) रूपस्थ (य) और (णिरंजणं) निरंजन का चिंतन (रूवादीदं ) रूपातीत ध्यान है।
भावार्थ-आत्मचिंतन रूप पिण्डस्थ, मन्त्र सूत्रात्मक पदस्थ व चेतनारूप अर्थात् शुद्धात्म-स्वरूप को प्राप्त अरिहंत आदि के रूप का चिंतन रूपस्थ तथा
306 :: सुनील प्राकृत समग्र