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नहीं करता, तब तक मिथ्यादृष्टि होने से आत्मोत्थ सुख का वेदन नहीं कर सकता। यह सुखगुण जीव का स्वभाव है, ऐसी बुद्धि होने पर आत्मानुभूति के काल में अतीन्द्रिय आनंद अनुभव में आता है।
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है जे एगंजाणेति हि, णादा-दिट्ठाय सुहमयं आई।
ते सव्वं जाणेति दु, आदपधाणो जिणक्खादे॥86॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (जे एग) जो एक (णादा-दिट्ठा य सुहमयं आदं) ज्ञाता-दृष्टा, सुखमय आत्मा को (जाणेति) जानते हैं (ते सव्वं जाणेति) वे सब जानते हैं (दु) क्योंकि (जिणक्खादे) जिनेन्द्र के कथन में (आदपधाणो) आत्मा प्रधान है।
__ अर्थ-निश्चय से जो महानुभाव एक ज्ञाता-दृष्टा सुखमय आत्मा को जानते हैं, वे सब जानते हैं, क्योंकि जिनेन्द्र के कथन में आत्मा प्रधान है।
व्याख्या-छह द्रव्यों के सम्यग्ज्ञान पूर्वक हेय-उपादेय का बोध रखने वाले जो महानुभाव एक निज ज्ञाता-द्रष्टा, सुखमय आत्मा को जानते हैं, वे सब जानते हैं। क्योंकि एक तो उन्होंने श्रुतज्ञान के बल से षद्रव्यों को भली प्रकार जानकर उसमें से निज ज्ञायक आत्मतत्त्व को ग्रहण किया है। दूसरे जिनेन्द्र देव के कथन में आत्मा ही प्रधानभूत है, सो उस आत्मतत्त्व के ज्ञायक होने से वे सब जानते हैं, ऐसा कहा गया है।
जो अनेक ज्ञेयों (शास्त्रों) को जानता हुआ भी यदि निज ज्ञायक आत्मा को नहीं जानता है, तो उसका वह जानना, न जानने के बराबर ही है। अष्टप्रवचनमातृका का ज्ञान रखने वाला आत्मज्ञानी भी सिद्ध हो जाता है, जबकि आत्मबोध के अभाव में ग्यारह अंग का पाठी भी संसार में भटकता रहता है।
देह व धन में राग हो तो आत्मचिंतन करो देहे धणे य रागो, जदा हवेज तदा विचिंतेह।
असरण-मसासदं वा, अहमेक्को सासदो अप्या॥87॥ अन्वयार्थ-(देहे धणे य रागो जदा हवेज) देह व धन पर राग जब हो (तदा) तब [ये] (असरण-मसासदं वा) अशरण व अशाश्वत है [जबकि] (अहमेक्को सासदो अप्पा) मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ [ऐसे] (विचिंतेह) चिंतवन करो।
अर्थ-देह या धन पर जब राग हो, तब ऐसा विचारो कि ये अशरण व अशाश्वत हैं; जबकि मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ।
व्याख्या-स्व अथवा पर शरीर तथा धनादि पर जब राग हो तब यह विचार
294 :: सुनील प्राकृत समग्र