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परमात्मा के समान मनुष्य है। क्योंकि इन दोषों के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर मनुष्य ही परमात्मा होता है।
शुद्धोपयोग ही निजधर्म है
जोगवित्तीइ कम्मं, अतच्चणाणेण होदि मिच्छत्तं । सुहासु हि य बंधो, सुद्धवओगेण णियधम्मो ॥55 ॥
अन्वयार्थ – (जोगपवित्तीए कम्मं) योगप्रवृत्ति से कर्म (अतच्चणाणेण मिच्छत्तं) अतत्त्वज्ञान से मिथ्यात्व (सुहासुहेहिं बंधो) शुभाशुभ से बंध (य) और (सुद्धवओगेण ) शुद्धोपयोग से (णियधम्मो होदि) निजधर्म होता है ।
अर्थ - योग प्रवृत्ति से कर्म, अतत्त्व ज्ञान से मिथ्यात्व शुभाशुभभाव से बंध तथा शुद्धोपयोग से जिनधर्म होता है।
व्याख्या—मन-वचन-कायरूप योगों की चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है । तत्त्व की सच्ची समझ न होने से मिथ्यात्व बना रहता है। शुभोपयोग व अशुभोपयोग से क्रमशः पुण्य-पाप का आस्रव-बंध होता रहता है। जबकि धर्म तो निज शुद्धोपयोग का आश्रय लेने पर ही होता है। जैसा कि प्रवचनसार में कहा हैसुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु । परिणामा णण्णगदं दुक्खक्खय कारणं समए ॥181 ॥
शुभपरिणामों से पुण्य होता है, अशुभ से पाप होता है; जबकि आत्मा से अनन्यगत परिणाम अर्थात् शुद्धोपयोग जिनशासन में दुःख क्षय का कारण कहा है।
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मन, वचन, काय की शुभ परिणति ही धर्म नहीं है, अपितु उपयोग की शुद्धि में कारण होने से इन्हें धर्म कहा जाता है। शुभपरिणति के साथ आत्म- केन्द्रित दृष्टि ही कल्याणकारी है।
हे जीव ! चूको मत
देसं कालं जम्मं, कुलं च धम्मं सुदेवगुरुसत्थं ।
पाऊण य पुण्णेण, मा चुक्कह कुणह आदहिदं ॥ 56 ॥ अन्वयार्थ – (पुणेण) पुण्य से (देसं कालं जम्मं कुलं च धम्मं सुदेवगुरुसत्थं) देश, काल, जन्म, कुल, धर्म और सच्चे देवशास्त्रगुरु को (पाऊण) प्राप्तकर (मा चुक्कह) चूको मत (आदहिदं) आत्महित (कुणह) करो ।
अर्थ - - पुण्य से देश, काल, जन्म, कुल, धर्म और सच्चे देवशास्त्रगुरु प्राप्तकर, हे जीव ! चूको मत, आत्महित करो ।
व्याख्या - विशिष्ट पुण्य कर्म के उदय से राजा-मंत्री आदि से व्यवस्थित देश, पंचम किन्तु अनुकूल काल, मानव जन्म, श्रेष्ठ कुल, वीतराग दिगम्बर जैन
278 :: सुनील प्राकृत समग्र