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मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ, ऐसा अनुभव करना (णिच्छएण) निश्चय से (चारित्तं) चारित्र है।
अर्थ-शुभ में प्रवृत्ति करना व्यवहार नय से चारित्र कहलाता है। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञाता-दृष्टा हूँ, ऐसा अनुभव करना निश्चय चारित्र कहलाता है।
व्याख्या-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह इन पाँच व्रतों से युक्त होकर देव-पूजा, गुरु-उपासना, दान, स्वाध्याय, तप तथा संयम आदि में विवेक पूर्वक प्रवृत्ति करना शुभ प्रवृत्ति; व्यवहार चारित्र कहलाती है। मैं शुद्धबुद्ध, एक, ज्ञाता-दृष्टा आत्मा हूँ, ऐसा इस प्रकार अनुभव करना निश्चय चारित्र कहलाता है। 'चारित्रसंपन्नोऽहम्'।
श्रावक का लक्षण जिण-पूयं मुणि-दाणं, करेदि पालेदि अणुव्वयादिं च।
सो सावगो त्ति भणिदो, छक्कम्म-परायणो बुद्धो॥8॥ अन्वयार्थ-(जो) जो (जिण-पूयं मुणि दाणं, करेदि) जिन पूजा, मुनि-दान करता है (पालेदि अणुव्वयादि) अणुव्रतादि का पालन करता है [तथा] (छक्कम्म परायणो) षट्कर्म परायण (बुद्धो) विवेकी (सो सावगो त्ति भणिदो) वह श्रावक कहा गया है।
अर्थ-जो जिनेन्द्र देव की पूजा करता है, मुनियों को आहारादि दान देता है, अणुव्रतादि का पालन करता है तथा षट्कर्म परायण है, वह बुद्धिमान श्रावक कहा गया है। ___व्याख्या-जो विवेकी गृहस्थ श्री वीतराग जिनेन्द्र भगवान; सच्चे, देव, शास्त्र, गुरु और परमेष्ठियों की पूजा करता है; मुनिराजों तथा त्यागी-व्रतियों को आहार, औषधि, शास्त्र व अभयदान देता है; अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत तथा परिग्रह परिमाण अणुव्रत का पालन करता है तथा षट्कर्मों में परायण है, वह श्रावक कहलाता है।
देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान ये श्रावक के षट्कर्त्तव्य कहलाते हैं। जैसा कि आचार्य सोमदेव ने कहा है
देव पूजा गुरुपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानश्चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने-दिने॥ . गृहस्थ श्रावक की अपेक्षा कदाचित् षट्कर्मों में असि, मसि, कृषि, शिल्पकला, विद्या व वाणिज्य को भी लिया जा सकता है। क्योंकि इन षट्कर्मों से आजीविका करता हुआ भी गृहनिरत श्रावक धर्मात्मा हो सकता है। गृहविरत श्रावक के यह कर्म नहीं पाए जाते हैं। कुन्दकुन्द देव ने रयणसार (11) में दान व पूजा श्रावक का मुख्य
252 :: सुनील प्राकृत समग्र