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योगीजन लोक से कैसे प्रभावित हो सकते हैं? वस्तुतः ऐसे योगयुक्त साधु ही धन्य हैं, कल्याणकारी हैं। 'योग-युक्तोऽहम्' ।।70॥
जीव जुदा, पुद्गल जुदा जीवो य पुग्गलो भिण्णो, इच्चेव तच्च संगहो।
जं अण्णं उच्चदे किंचि, सो दु अस्सेव वित्थरो॥1॥ अन्वयार्थ-(जीवो य पुग्गलो भिण्णो) जीव और पुद्गल अन्य हैं (इच्चेव तच्च संगहो) इतना ही संग्रहभूत तत्त्व है (जं अण्णं किंचि उच्चदे) जो अन्य और कुछ कहा है (सो दु अस्सेव वित्थरो) वह इसका ही विस्तार है।
अर्थ-जीव और पुद्गल अन्य-अन्य हैं, इतना ही तत्त्व का सार है। अन्य और जो भी कुछ शास्त्रों में कहा है, वह इसका ही विस्तार है।
व्याख्या-संसार में मूलतः दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव। इन दोनों को एक मानने की भ्रमबुद्धि से यह जीव संसार दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है। इन्हें पृथक-पृथक जानना, अनुभव तथा श्रद्धान करना ही वस्तुतः सारभूत बात है। शास्त्रों में इन दोनों के लक्षण तथा प्रकिया विस्तार से इन्हें ही समझाने के लिए कहे हैं। जीव जुदा, पुद्गल जुदा यह जानना ही संग्रहरूप से तत्त्वज्ञान है। शेष शास्त्र इस तथ्य के विस्तार में ही लिखे गए हैं। यही बात इष्टोपदेश (50) में कही है। 'चैतन्यज्योतिस्वरूपोऽहम्' ॥71 ॥
ग्रन्थकार की लघुता अप्पसुदेण दु सहिदो, झाणज्झयणं च मोक्खमग्ग रदो।
मए भावणा-सारो, किदो सोधयंतु सुदपुण्णा ॥72॥
अन्वयार्थ-(अप्पसुदेण सहिदो) अल्पश्रुत सहित (दु) किन्तु (झाणज्झयणं च मोक्खमग्ग रदो) ध्यान-अध्ययन और मोक्षमार्गरत (मए) मेरे द्वारा (भावणा सारो किदो) भावनासार किया गया है [इसे] (सुदपुण्णा) श्रुतपूर्ण जन (सोधयंतु) सोधे।
अर्थ-अल्पश्रुत सहित किन्तु ध्यान-अध्ययन और मोक्षमार्गरत मेरे द्वारा यह भावना-सार नामक ग्रन्थ लिखा गया है। इसे श्रुतपूर्ण जन शोधन करें।
व्याख्या-यह उपसंहार गाथा है। ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए, ग्रन्थ का नाम प्रगटकर श्रुतपूर्ण आचार्यों से इसके संशोधन की प्रर्थना की है। यहां ग्रन्थकर्ता आचार्य श्री सुनीलसागर जी कहते हैं कि अल्पश्रुत सहित किन्तु जो मुनि का मुख्य लक्षण है 'ध्यान-अध्ययन युक्त मेरे द्वारा यह श्रेष्ठ भावनासार' ग्रन्थ रचा गया है। इसमें बारह भावनाओं का संक्षिप्त वर्णन है। यह बारह भावनाएं संवेग व वैराग्य की जननी हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इन्हें भविय जणाणंद जणणीओ' कहा है।
॥समत्तं भावणासारो॥
244 :: सुनील प्राकृत समग्र