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वस्तुतः ये चारों ही कषाएँ दुःखदायक, बंधकारक, संतापकारक व अनेक विपत्तियों को लाकर संसार में भ्रमाने वाली हैं । अतः इनको त्यागकर क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौचादि उत्तम गुणों को वृद्धिंगत करना चाहिए । 'कषायरहितोऽहम् ' ॥64 ॥ अकषायवान ही संयमी है
अकसाए दु चारित्तं, कसाए दु असंजमं । समभावत्तो जो, सो णाणी सोय संजमी ||65 ॥
अन्वयार्थ – (अकसाए दु चारित्तं) अकषाय में ही चारित्र है (कसाए दु असंजमं) कषायों में असंयम है, (जो) जो (पसमभावजुत्तो) प्रशमभाव युक्त है (सो णाणी) वह ज्ञानी है ( सो य संजमी) और वही संयमी है।
अर्थ - अकषाय में ही चारित्र है, जबकि कषायभाव में असंयम ही है। इसलिए जो प्रशमभाव सहित है, वह ज्ञानी है और वही संयमी है।
व्याख्या -कषाय अर्थात् जीव के कलुषित परिणाम । इन कलुषित भावों का नाम ही कषाय है। जहाँ कलुषितभावरूप कषाय नहीं है, वहाँ ही चारित्र (संयम) है, किन्तु जहाँ कलुषित भाव हैं, वहाँ संयम नहीं है। इसलिए प्रशम भाव से युक्त जीव ही ज्ञानी और संयमी है।
अपने कलुषित अथवा विशुद्धभावों का जिम्मेदार यह जीव व स्वयं ही है । यदि यह परिणामों को संभालने का पुरूषार्थ करे, तो सदा उपशम (शांत) भाव सहित रह सकता है, क्योंकि शांतता इसका निजी गुण है। जैसे जल का स्वभाव शीतलता है किन्तु अग्नि के संयोग से वह गर्म हो जाता है और अग्नि का संयोग हटने पर स्वतः शांत हो जाता है, वैसे ही जीव का स्वभाव अनाकुलता है किन्तु कर्मोदय से, संकल्प-विकल्प से वह अस्थिर हो जाता है । यदि यह संयोग समाप्त हो जाएँ तो आत्मा सदा आनंद स्वभाव वाला ही है ।
आचार्य समंतभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥33॥
निर्मोही गृहस्थ मोक्षमार्गी है, जबकि मोही अर्थात् मिथ्यात्व सहित मुनि मोक्षमार्गी नहीं है। मोही मुनि की अपेक्षा निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ।
वस्तुतः अकषाय भाव सहित व्रतधारण करना ही मोक्षमार्ग में कल्याणकारी है। क्योंकि कषाएँ बंधका ही कारण हैं, मोक्ष का नहीं। 'अकषायभावसहितोऽहम् ' ॥65 || कषायवान का त्याग निष्फल है
धणं गेहं कुडुंबं च चत्ता वि जो ण मुंचदे ।
राय - दोसे कसायं च, चागो सो तस्स णिप्फलो 1166 ॥
240 :: सुनील प्राकृत समग्र