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तव-सुद-वदवं चेदा, ज्झाण-रह-धुरंधरो हवे जम्हा।
तम्हा तत्तिय णिरदा, तल्लद्धीए सदा होह॥57॥ अर्थात् तप, श्रुत तथा व्रतों से युक्त साधक ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने में जिस कारण समर्थ होता है, उस कारण इनकी उपलब्धि करने के लिए सदा तत्पर होओ।
इस कथन से इतना तो पूर्णतः स्पष्ट है कि तप, श्रुत तथा व्रतों के सर्वथा अभाव में कोई भी आत्मध्यानी नहीं हो सकता है। अतः निज-निरंजन आत्मा के ध्यान की वांछा रखने वाले भव्यजीवों को तप, व्रत व श्रुत का जीवन में अभ्यास तथा वृद्धिंगत करने का पुरुषार्थ निरंतर करना चाहिए। बार-बार भोजन-पानी ग्रहण करके शरीर को सुखिया स्वभाव वाला बनाकर, व्रतादि के अभाव में, मात्र कोरी चर्चाओं से कम से कम आत्मानुभव तो नहीं होगा। यदि संयम धारण करना कठिन प्रतीत होता हो, तो संयम व संयमधारियों के प्रति बहुमान तो सम्यग्दृष्टि को होता ही है। ‘निष्कषाय-दांत-धैर्ययुक्त-समभावस्वरूपोऽहम् ॥43 ॥
निजात्मा ही सर्वश्रेष्ठ है सरीरादु वरं इंदी, इंदियत्तो वरं मणो।
मणसा य वरं बोही, अप्पा हि बोहिए वरं ॥4॥ अन्वयार्थ-(सरीरादु वरं इंदी) शरीर से इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं (इंदियत्तो वरं मणो) इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है (मणसा वरं बोही) मन से बोधि श्रेष्ठ है (य) और (बोहिए) बोधि से (अप्पा वरं) निज आत्मा श्रेष्ठ है। 44 ॥
अर्थ-शरीर से इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं, इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बोधि श्रेष्ठ है और बोधि से आत्मा श्रेष्ठ है।
व्याख्या-संयम का साधन होने से मानव शरीर को श्रेष्ठ माना जाता है। संयम मनुष्य गति में ही संभव है, मनुष्य गति में ही सकल महाव्रत संभव हैं, मनुष्य गति में ही सम्पूर्ण ज्ञान तथा मनुष्यगति में ही निर्वाण संभव है। ऐसा कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है
मणुग्गदीए वि तवो, मणुग्गदीए महव्वदं सयलं।
मणुग्गदीए झाणं, मणुग्गदीए वि होदि णिव्वाणं॥ यहाँ मनुष्यगति का अर्थ मनुष्य शरीर करना चाहिए। शरीर से भी श्रेष्ठ इन्द्रियाँ है, क्योंकि इन्द्रियाँ पूर्ण व व्यवस्थित नहीं है; तो सुन्दर शरीर वाला भी मुनि नहीं बन सकता। ऐसे लोग भी देखने में आते है कि सम्पूर्ण शरीर सुन्दर है, आँख भी है पर
भावणासारो :: 223