________________
व्याख्या-पढ़कर-लिखकर भी अविवेकी, योग्य-अयोग्य को न समझने वाला अथवा शास्त्र को जानकर या न जानकर मात्र लोकरूढ़ी का अनुगमन करने वाला व्यक्ति मूढ़ कहलाता है, यह मिथ्यात्वी ही होता है।
अश्रद्धानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि। मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा। वस्तु-तत्त्व की सही समझ और श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के 1. गृहीत, व 2. अगृहीत ऐसे दो; 1. गृहीत, 2. अगृहीत, 3. संशय ऐसे तीन अथवा 1. विपरीत, 2. एकान्त, 3. विनय 4. संशय तथा 5. अज्ञान ऐसे पाँच भेद हैं।
गृहीत मिथ्यात्व वह कहलाता है जो खोटे देवशास्त्रगुरु के संसर्ग से तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा अथवा विपरीत श्रद्धा बनी हुई है। अगृहीत मिथ्यात्व वह है, जिसमें शरीरादि के प्रति सहज एकत्वबुद्धि बनी रहती है। यह मिथ्यात्व जीवों का अनिष्ट करने वाला है। किन्तु यह स्वयं की विपरीत श्रद्धा से हुआ है, अतः इसे मिटाया जा सकता है।
संशयालु व्यक्ति बहुत जानकर भी संशय में रहता है, कि ऐसा है या नहीं। जैनधर्म को प्राप्तकर संयमादि का पालन करने वालों में भी ऐसे जीव रह सकते हैं। उनकी दृष्टि वस्तु-तत्त्व पर नहीं रहती। वे सात तत्त्व, छह द्रव्य आदि की चर्चा भले जोर-शोर से करते हों, पर उनके मन में यह बात बनी रहती है कि ऐसा है या नहीं? आत्मा है या नहीं? क्या आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है? मुझे तो नहीं लगता कि ऐसी साधारण संसारी आत्माएँ भगवान बनती होगी, भगवान जरूर कोई सर्वशक्तिमान होना चाहिए? इतने बड़े विश्व की रचना बिना बनाएँ कैसे हो सकती है? यदि संसारी जीव निरंतर मोक्ष जाते रहे तो संसारी खाली हो जाएगा? इत्यादि प्रकार के संशयवान मनुष्य को तो न यह लोक सुखकारी है और न ही परलोक सुखकारी है। अतः संशय बुद्धि त्यागना ही हितकारी है। 'सदानंदामूर्तस्वरूपोऽहम् ' 142 ॥
प्रज्ञा-छैनी से आत्मा-अनात्मा की पृथकता मोहोदएण जीवो हि, परदव्वेसु मोहदि।
पण्णाबलेण छेणि व्व, अप्पाणप्पा य भासदे॥2॥ अन्वयार्थ-(जीवो) जीव (मोहोदएण) मोह के उदय से (परदव्वेसु मोहदि) परद्रव्यों में मोहित होता है (हि) किन्तु (छेणि व्व) छैनी के समान (पण्णाबलेण) प्रज्ञाबल से (अप्पाणप्पा य भासदे) आत्मा और अनात्मा भासित होता है।
___ अर्थ- यह जीव मोह के उदय से परद्रव्यों में मोहित होता है, किन्तु छैनी के समान प्रज्ञाबल से आत्मा व अनात्मा में अंतर मालूम पड़ता है। ___ व्याख्या-बहिरात्मा जीव दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा-अनात्मा को न जानता हुआ स्वदेह, स्त्री पुत्रादि, धन-धान्यादि, दुःख-सुख आदि में एकत्व
भावणासारो :: 221