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संसारी जीवों की कुल चौरासी लाख योनियाँ हैं। जीव कुलों की अपेक्षा एक सौ साड़े निन्यानवें लाख करोड़ प्रकार के हैं। इन विभिन्न गतियों, योनियों तथा कुलकोटियों में ये जीव ज्ञानावरणादि कर्मों के वशीभूत होकर भ्रमण करते हैं।
लोक का निचला आधा भाग अर्थात् सात राजू लोक अधोलोक कहलाता है। यहाँ सात नरक भूमियाँ अवस्थित हैं। पहली भूमि के तीन भाग हैं। जिसके पहले खर भाग में नौ प्रकार के भवनवासी तथा सात प्रकार के व्यंतरों का निवास है, दूसरे पंक भाग में भवनवासी के असुर कुमारों तथा व्यंतरों के राक्षस जाति के देवों का निवास है। तीसरे अब्बहुल भाग में नारकी जीव है। क्रमश: दूसरी से सातवीं पृथ्वी तक नारकी जीव रहते हैं। उसके नीचे एक राजू प्रमाण कलकल भूमि में अनंतानंत निगोदिया जीव एक श्वास में अठारह बार जन्म-मरण करते हुए अवस्थित हैं।
लोक के उपरले सात राजू क्षेत्र को ऊर्ध्वलोक कहते हैं। यहाँ ऊपर-ऊपर की तरफ देवों के विमान हैं। देवों का सर्वोच्च विमान सर्वार्थसिद्धि क्षेत्र है, उसके ऊपर सिद्धक्षेत्र है। सिद्धलोक में अनंतानंत सिद्ध जीव स्वभाव में स्थित विराजमान हैं। ___अधो व ऊर्ध्वलोक की संधि में स्थित एक लाख योजन प्रमाण मोटे तथा एक राजू विस्तृत क्षेत्र को मध्यलोक कहते है। मध्यलोक में सभी प्रकार के तिर्यंच तथा मनुष्य रहते हैं। एकेंद्रिय तिर्यंच तो सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं, किन्तु द्विन्द्रियादि तिर्यंच तथा सभी मनुष्य मध्यलोक में ही पाए जाते हैं।
मध्यलोक के असंख्यात द्वीप-समुद्रों में मनुष्यों की अवस्थिति केवल प्रारंभ के ढ़ाई-द्वीपों में ही पाई जाती है। शेष सभी द्वीपों में जघन्य भोगभूमि जैसी रचना है, जहाँ विकलत्रयों के अलावा तिर्यंच पशु पाए जाते हैं। अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप के उस तरफ वाले आधे द्वीप तथा सम्पूर्ण समुद्र में कर्मभूमियाँ सदृश तिर्यंच पाए जाते हैं। जिनमें असंख्यात तिर्यंच सम्यग्दृष्टि व देशव्रती हैं।
जब तक यह जीव आदि मध्य व अंत रहित, शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव वाले, आनंदमय निज चिल्लोक को नहीं जानता, नहीं अनुभवता है; तब तक अनंत दु:खों को भोगता हुआ इस विस्तृत संसार में परिभ्रमण करता है। यदि यह जीव दुःखों से बचना चाहता है, तो स्व-रूप को जानकर उसमें ही अवस्थित होना चाहिए। स्वरूप मय निज चित् लोक अनंत गुणों का गोदाम, कषायादि से रहित परमानंद स्वरूप है, शाश्वत शरणभूत है। इस शाश्वत निजात्मा की शरण ही जीव को स्थायी रूप से संसार परिभ्रमण से बचा सकती है। 'चतुर्गतिभ्रमणरहित ज्ञानस्वरूपोऽहम्' ॥37॥
बोधिदुर्लभ भावना णिगोदे वियलेसु य, गदो कालो अणंतिमो। सुकुलं माणुसत्तं च, पत्तं ण बोहिदुल्लभा॥38॥
भावणासारो :: 217