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व्याख्या-धन-संपत्ती, सोना-चाँदी, रुपया -पैसा आदि सभी पुद्गल की पर्याएँ हैं। क्योंकि इनकी रचना पुद्गल स्कंधों से हुई है। फिर भी गृहस्थ जीवन में इसकी उपयोगिता रहती है। श्रावकाचारों में गृहस्थ श्रावकों को न्यायपूर्वक धनार्जन करने का परामर्श दिया गया है। धन उतना होना ही अच्छा है, जिससे भलीप्रकार कुटुंब परिवार का पालन-पोषण हो तथा सच्चे देवशास्त्रगुरु की आराधना में विघ्न न पड़े। धर्म को छोड़कर मात्र धन कमाने के लिए अपने जीवन के अमूल्य क्षणों का दुरुपयोग करना मूर्खता है। अर्थार्जन की ओर उतना लक्ष्य ही उचित है, जिससे अर्थ अनर्थ का कारण न बने।
__धन का सर्वथा नहीं होना तो गृहस्थ जीवन में दुःख का कारण है ही, किन्तु अधिक धन होना भी दु:ख और चिंता का कारण बन जाता है। एक व्यक्ति के अधिक धन संचय कर लेने से राष्ट्र में विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक महापरिग्रही व्यक्ति यदि धन का सही नियोजन नहीं करता है, तो वह महापापी है, क्योंकि उसके धन-धान्यादि संग्रह कर लेने से अनेक लोग दु:ख उठाते हैं।
धन दु:ख-संताप, आर्त-रौद्रध्यान तथा परिग्रहानंदी ध्यान का मुख्य कारण है। इस ध्यान के वश होकर प्रायः धनिकजन मरकर अपने ही कोष (घर) में सर्प हो जाते हैं या कुत्ते की पर्याय पाकर वहीं रहने लगते हैं। महान आरंभ व पापों से प्राप्त धन दुःख का ही कारण होता है। अतः पापकर्मों से बचो।
पुण्योदय से यदि ऐश्वर्य प्राप्त हुआ है, तो उसका सदुपयोग करो। जिनप्रतिमा निर्माण, तीर्थ निर्माण, जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, साधुसेवा, दीन-दुःखियों की
सेवा में धन व्यय करने से कदाचित परमार्थ सधता है। यदि आपने औषधालयों और विद्यालयों का निर्माण कराकर व्यवस्थित संचालन किया है, तब तो आपने अनेक जीवों का उपकार कर अतिशय पुण्य कमाया है।
धन शाश्वत नहीं है। उसको निकालते जाने में लाभ है। किसी के संभालने से धन संभलता नहीं। लक्ष्मी तो पुण्य की दासी है। ऐसा जानकर ज्ञानीजन संसार, शरीर व भोगों से विरक्त रहते हुए निजात्मा में रुचि बढ़ाते हैं। 'सम्यग्ज्ञानधन स्वरूपोऽहम् ' ॥11॥
अशरण भावना मिच्चुकाले य जीवाणं, को समत्थो हि रक्खणे।
तंतो मंतो य देवो किं, वेज्जो इंदो धणिंदो वा॥12॥ अन्वयार्थ-(मिच्चुकाले) मृत्युकाल में (जीवाणं) जीवों की (रक्खणे) रक्षा करने में (हि) वस्ततः (को) कौन (समत्थो) समर्थ है? (तंतो-मंतो) तंत्र-मंत्र (य) और (देवों किं) क्या देव (वेजो इंदो धणिंदो वा) वैद्य, इन्द्र अथवा धनेन्द्र ?
196 :: सुनील प्राकृत समग्र