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आलंबन छोड़ निजात्मानुभव करने पर मोक्षरूप फल प्राप्त होता है।
ध्याता जिस समय जैसे ध्यान का आलंबन लेता है, उस समय वह उसी रूप परिणमन कर जाता है। जैसे लाल या पीले पुष्पों के संग से स्फटिक मणि भी लाल या पीला भासने लगता है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार में लिखा है
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो।
जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहदि॥186॥ शुद्धात्मा को जानता हुआ जीव शुद्धात्मा को ही प्राप्त करता है, जबकि अशुद्धात्मा को जानता हुआ अशुद्ध आत्मा को ही पाता है। अतः उपयोग को निर्मल रखना ही लाभकारी है। 'निरुपाधि स्वरूपोऽहम् ॥2॥
कैसी भावना करना चाहिए? अभाविदं हि भावेह, णेव भावेह भाविदं।
भावेह एरिसं भावं, जम्हा णस्सदु बंधणं ॥3॥ अन्वयार्थ-(अभाविदं हि भावेह) अभावित को ही भाओ (भाविदं) भावित को (णेव) नहीं (भावेह) भाओ, (एरिसं) इस प्रकार (भाव) भाव को (भावेह) भाओ (जम्हा) जिससे (वंधणं णस्सदु) कर्मबंधन नष्ट हो।
अर्थ-अभावित को ही भाओ, भावित को नहीं भाओ, इस प्रकार भावना भाओ, जिससे कर्म बंधन नष्ट हो जावे।
व्याख्या-यह जीव अनादिकाल से अपने भावों की अशुद्धि से ही संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इन्द्रिय-विषयों के वश होकर बार-बार दृष्ट, श्रुत व अनुभूत विषयों की ही भावना करता है, जो कि अत्यन्त सुलभ है, जबकि दुर्लभ निज एकत्व विभक्त आत्मतत्त्व की ओर लक्ष्य नहीं करता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है
सुद परिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि काम-भोग-बंध-कह।
एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥4॥ वस्तुतः निज की शुभ, अशुभ या शुद्ध परिणति का कर्ता-भोक्ता यह जीव स्वयं ही है। जिसका परिणाम विशुद्ध होगा, उसकी परिणति भी विशुद्ध होगी। जिसका परिणाम निर्मल नहीं है, उसकी वृत्ति कैसे निर्मल हो सकती है। कदाचित बक-वेशवत् वृत्ति में निर्मलता दिखे तो भी उसकी अंतरंग परिणति मैली होने से उसे परमार्थतः कुछ भी लाभ नहीं होता।
किसी विषय या वस्तु का बार-बार अनुप्रेक्षण (चिंतन) करना अनुप्रेक्षा है।
भावणासारो :: 189