________________
॥ णमोत्थु वीदरायाणं॥ भावणासारो (भावनासार)
मंगलाचरण णिच्चं अणोवमं सुद्धं, णिक्कम्मं गुणसंजुदं।
वोच्छामि भावणासारं, सिद्धे य णमिऊण हं॥ अन्वयार्थ-(णिच्चं अणोवमं सुद्ध) नित्य, अनुपम, शुद्ध (णिक्कम्मं गुणसंजुदं) निष्कर्म, गुणसंयुक्त (सिद्धे य णमिऊण) सिद्धों को नमनकर (हं) मैं (भावणासारं) भावनासार को (वोच्छामि) कहूँगा।
अर्थ-नित्य, अनुपम, शुद्ध, निष्कर्म गुणसंयुक्त सिद्धों को नमनकर मैं भावनासार ग्रन्थ को कहूँगा।
व्याख्या-प्रस्तुत मंगलाचरण में ग्रन्थकार (आचार्य श्री सुनीलसागर जी) ने निजात्मानुभव की सिद्धि के लिए संसारातीत, सदा स्वात्मा में तल्लीन तथा आत्मलीनता को उपलब्ध होकर संसारीजनों को वैसे होने की मंगल प्रेरणा देने वाले सिद्ध भगवंतों को स्मरण करते हुए मुख्यरूप से उनके पाँच विशेषणों का उल्लेख करते हुए नमन किया है।
गुणस्थानातीत, संसारातीत होने से, वैभाविक परिणमन से रहित होने से 'नित्य' अथवा स्वात्मद्रव्य के ध्रुवत्व की अपेक्षा 'नित्य'; समस्त उपाधियों और उपमाओं से उत्कृष्ट 'अनुपम'; राग-द्वेषादि समस्त संकल्प- विकल्पों से शून्य होने के कारण 'शुद्ध'; ज्ञानावरणादि समस्त कर्मसमूह के नष्ट होने पर वैभाविक गुणों का अभाव होने से समस्त गुणों की स्वाभाविक पर्याय प्रगट होने से 'गुणसंजुदं'; ये गुण अनंत होते हैं तथा अपना-अपना कार्य करते हैं। इन पाँच विशेषणों को यहाँ विशेषरूप से कहा है। सिद्धों में तो अनंत विशेषताएँ हैं पर उन सबको छद्मस्थों द्वारा आसानी से न तो कहा ही जा सकता है और न ही समझा ही जा सकता है। हाँ! आत्मानुभव के काल में कदाचित सम्पूर्ण गुण संयुक्त आत्मा का अनुभव जरूर किया जा सकता है।
अशरीरी, अनंतगुणवाले सिद्धों के स्वरूप को जानकर ऐसा ही मेरा स्वरूप है। अंततः इस आत्मानुभव के बल से मेरी भी वैसी ही परमदशा प्रकट होगी। मैं जन्म
भावणासारो :: 187