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अस्थिर चित्त को सुख कहाँ अणवद्विद-कजस्स, णो जणे णो वणे सुहं।
जणे दहदि संसग्गो, वणे संगविवजणं ॥157॥ अन्वयार्थ-(अणवदि-कज्जस्स) अनवस्थित कार्य वाले को (णो जणे णो वणे सुहं) न मनुष्यों में, न वन में सुख होता है (जणे दहेदि संसग्गो) मनुष्यों में संसर्ग [तथा] (वणे संग विवजणं) वन में संग विवर्जन (दहदि) जलाता है।
भावार्थ-जिसका मन स्थिर नहीं है अथवा जो स्थिर मन से कोई भी कार्य नहीं करता, वह मनुष्य न तो मनुष्यों के बीच ग्राम, नगर आदि में रहता हुआ सुखी हो सकता है और न ही वन में; क्योंकि मनुष्यों के बीच में उसे अच्छा-बुरा संसर्गसंपर्क जलाता है, तो जंगल में संग विवर्जन भी भीतर-भीतर जलाता रहता है। स्थिरमन वाला मनुष्य हर जगह हमेशा सुखी रहता है।
जिसके कर्म उसी को फल जहा घेणूसहस्सेसु, वच्छो गच्छदि मायरं।
तहा जेण कयं कम्मं, कत्तारमणुगच्छदि॥158॥ अन्वयार्थ-(जहा) जैसे, (घेणू सहस्सेण) हजारों गायों में (वच्छो) बछड़ा (मायरं) माता को (गच्छदि) प्राप्त करता है (तहा) वैसे ही (जेण कयं कम्म) जिसका किया कर्म है (कत्तारमणुगच्छदि) कर्ता का अनुसरण करता है।
भावार्थ-जिस प्रकार हजारों गायों के बीच भी बछड़ा अपनी माँ को ढूंढ लेता है, उसका अनुसरण करता है, उसी प्रकार जिसके द्वारा किया गया कर्म है वह उसी को शुभाशुभ फल देता है। किसी अन्य का कर्म किसी अन्य को तीन काल में भी फल नहीं दे सकता है। अपने दुःख-सुख के जिम्मेदार हम स्वयं हैं।
हमेशा वैसी मति रहे तो धम्मट्ठाणे मसाणे य, रोगीसुं जारिसी मदी।
सा णिच्चं जइ चिट्ठेज, कोण णस्सदि बंधणं159॥ अन्वयार्थ-(धम्मट्ठाणे) धर्मस्थान में, (मसाणे) श्मशान में (य) और, (रोगीसुं) रोगियों में [उन्हें देखने पर] (जारिसी मदी) जो बुद्धि होती है, (जइ) यदि (सा) वह (णिच्चं) हमेशा (चिट्ठेज) रहे (तो) (को) कौन (बंधणं ण णस्सदि) कर्म बन्धन को नष्ट नहीं कर देता।
भावार्थ-धर्मसभा, मंदिर आदि धर्मस्थान में, शव जलाने के स्थान और रोगियों को देखकर श्मशान में जैसी बुद्धि होती है, यदि वैसी बुद्धि हमेशा बनी रहे तो फिर संसार में ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो संयम धारण कर, तपस्या के द्वारा
लोग-णीदी :: 183