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भावार्थ-गुरु की भक्ति करने वाला, संसार के दुःखों से भयभीत, विनयशील, धार्मिक, सुधी-विवेकी, शान्त-उपसमभाव युक्त अर्थात् मन्दकषायी, शान्त- इन्द्रियजयी और अतंद्रालू अर्थात् आलस्य से रहित शिक्षार्थी-शिष्य ही सफल होता है, अन्य नहीं।
विद्यार्थी इन्हें छोड़ें कामं कोहं तहा लोहं, सादं सिंगारकोदुगं।
अइणिदाइ-सेवंच, विज्जत्थी अट्ठ मुंचदु॥15॥ अन्वयार्थ-(कामं कोहं तहा लोहं, सादं सिंगार कोदुगं अइणिद्दा) काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, श्रृंगार, कौतुक, अतिनिद्रा (च) और (अइ-सेवं) अति सेवा [य] (अट्ठ) आठ (विज्जत्थी) विद्यार्थी (मुंचदु) छोड़ दे।
भावार्थ-काम, क्रोध, लोभ, स्वाद-लोलुपता, सजने-संवरने की चेष्टा, टी.वी., सिनेमा आदि कौतुक, बहुत सोना और हमेशा दूसरों की सेवा करते रहना ये आठ दोष विद्यार्थी अवश्य ही छोड़ दें। यदि कोई इन दोषों में प्रवर्तता हुआ भी विद्याध्ययन करना चाहे तो उसका सफल होना संदेहास्पद ही रहेगा।
ये स्वर्गगामी होते हैं पत्तत्थं भोयणं पाणं, दाणत्थं च धणज्जणं। धम्मत्थं जीविदं जेसिं, ते णरा सग्ग-गामिणो॥106॥
अन्वयार्थ-(पत्तत्थं भोयणं पाणं) पात्र के लिए भोजन-पान (दाणत्थं धणज्जणं) दान के लिए धनार्जन (च) और (धम्मत्थं) धर्म के लिए (जेसिं) जिनका (जीविदं) जीवन है (ते णरा) वे मनुष्य (सग्ग-गामिणो) स्वर्गगामी होते हैं।
भावार्थ-जो मनुष्य सु-पात्रों को भोजन-पान देने में सदैव तत्पर रहते हैं, दान करने के उद्देश्य से ही धन कमाते हैं और धर्म के लिए ही, निज आत्मोन्नति के लिए ही जीवन जीते हैं, वे निश्चित ही स्वर्ग में जाने वाले हैं। ऐसे जीव परम्परा से मुक्ति भी प्राप्त करते हैं।
गर्व नहीं करना चाहिए दाणे तवम्मि सूरम्मि, विण्णाणे विणए जए।
माणं हु णो य कादव्वं, विविहा रयणा मही107॥ अन्वयार्थ-(दाणे तवम्मि सूरम्मि विण्णाणे विणए जए) दान, तप, शूरता, विज्ञान, विनय (य) और विजय में (माणं) मान (णो) नहीं (कादव्वं) करना चाहिए [क्योंकि] (विविहा रयणा मही) धरती विविध रत्नों से युक्त हैं।
लोग-णीदी :: 165