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सुधीजनों का (मोण-सत्तगं) मौन सप्तक है।
भावार्थ-भोजन करते समय, वमन (उल्टी, कै) होते समय, स्नान करते समय, मैथुनकाल में, मल-मूत्र का त्याग करते समय, सामायिक तथा जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते समय मौन रहना चाहिए। बुद्धिमानों ने यह मौन सप्तक कहा है।
ये परोपकारी हैं चंदो सुज्जो घणो रुक्खो, णदी घेणूय सज्जणो।
एदे परोवगारस्स, वटेंते पत्थणं विणा ॥99॥ अन्वयार्थ-(चंदो सुज्जो घणो रुक्खो णदी घेणू य सज्जणो) चन्द्रमा, सूर्य, मेघ, वृक्ष, नदी, धेनु और सज्जन (एदे) ये (परोवगारस्स) परोपकार के लिए (पत्थणं विणा) प्रार्थना बिना (वट्टते) प्रवृत्ति करते हैं।
भावार्थ-चन्द्रमा, सूर्य, जल वरसाने वाले मेघ, नदी, गाय और सज्जन मनुष्य ये बिना प्रार्थना के ही लोक का उपकार करते रहते हैं। इनमें उपकार करने की महान सामर्थ्य है और ये बिना किसी अपेक्षा के जगत का सतत उपकार करते हैं।
चिंता से हानि चिंतादो णस्सदे णाणं, चिंतादो णस्सदे बलं।
बाही होदि य चिंतादो, तम्हा चिंतं करेज्ज णो100॥ अन्वयार्थ-(चिंतादो णस्सदे णाणं) चिंता से ज्ञान नष्ट होता है (चिंतादो णस्सदे बलं) चिंता से बल नष्ट होता है (य) और (चिंतादो) चिंता से (बाही होदि) व्याधि होती है (तम्हा) इसलिए (चिंतं) चिंता (णो) नहीं (करेज) करो।
भावार्थ-चिन्ता करने से ज्ञान, बल-शारीरिक तथा मानसिक बल नष्ट हो जाता है और अत्यधिक चिन्ता करने से ही बड़ी-बड़ी बीमारियाँ होती हैं, इसलिए व्यर्थ ही खून को जलाने वाली और कर्मों का बन्ध कराने वाली खोटी चिन्ताओं का त्याग कर देना चाहिए।
यह सोचिए मत एगल्लो असहेज्जो हं, किसो य अवरिच्छिदो।
सुविणे वि ण चिंतेंति, वणराओ दिवायरो101॥ अन्वयार्थ-(वणराओ दिवायरो) वनराज, [तथा] सूर्य (किसो हं) मैं कृष् हूँ (असहेज्जो) असहाय हूँ (अवरिच्छिदो) उपकरणों से रहित (य) और (एगल्लो) अकेला हूँ [ऐसे] (सुविणे वि) स्वप्न में भी (ण चिंतेंति) नहीं सोचते हैं।
भावार्थ-प्रस्तुत छन्द स्व-पराक्रम का महत्त्व दर्शाते हुए कहा गया है।
लोग-णीदी :: 163