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अन्वयार्थ-(जो) जो (धम्मत्थ-काम-मोक्खं) धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष (च) और (उच्चकित्तिं) उच्चकीर्ति को (दएज्ज) देती है (सा विज्जा) वह विद्या (जेण) जिसने (ण अधीदा) नहीं पढ़ी (हि) वस्तुतः (तस्स) उसका (जम्मो) जन्म (णिप्फलो) निष्फल है।
भावार्थ-जो धार्मिक-पारमार्थिक विद्या (ज्ञान) धर्म, अर्थ काम और मोक्ष तथा उत्तम कीर्ति को प्रदान करती है, वह विद्या जिसने नहीं पढ़ी अर्थात् जिसने धार्मिक जैन-शास्त्रों का अच्छी तरह अध्ययन नहीं किया उसका जीवन ही निष्फल हो गया ऐसा समझो।
दानी कौन है? अदायार-णरो चागी, धणं चइय गच्छदि।
दायारं किविणं मण्णे, पर-भवे ण मुंचदि॥67॥ अन्वयार्थ-[मैं] (अदायार-णरो) अदाता पुरुष को (चागी) त्यागी (मण्णे) मानता हूँ [क्योंकि वह] (धणं चइय गच्छदि) धन छोड़कर के चला जाता है [तथा] (दायारं किविणं मण्णे) दाता को कृपण मानता हूँ [क्योंकि वह] (पर-भवे ण मुंचदि) पर-भव में नहीं छोड़ता है।
भावार्थ-मैं अदाता-कंजूस मनुष्य को त्यागी मानता हूँ, क्योंकि जब वह मरता है तो सब कुछ यहीं का यहीं छोड़ जाता है तथा दाता अर्थात् निरन्तर दान दे देकर अगले भव में महान वैभव, धन-सम्पदा को प्राप्त करने वाले दाता को कंजूस मानता हूँ।
इन्हें दूसरे भोगते हैं कीडेहिं संचिदं धण्णं, मक्खीए संचिदं महुं।
किविणोवज्जिदा लच्छी, परेण हि विभुज्जदे॥68॥ अन्वयार्थ-(कीडेहिं संचिदं धण्णं) कीड़ों के द्वारा संचित धान्य (मक्खीए संचिदं महू) मक्खियों द्वारा संचित मधु [और](किविणोवज्जिदा लच्छी) कृपण द्वारा उपार्जित लक्ष्मी (हि) निश्चय से (परेण) दूसरे के द्वारा ही (विभुज्जदे) भोगी जाती है।
भावार्थ-कीड़े-मकोड़ों द्वारा अपने-अपने स्थान में एकत्रित किया हुआ गेहूँ- चावल आदि धान्य, मधु-मक्खियों द्वारा संचित मधु (और) कृपण द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय से दूसरे के द्वारा ही भोगी जाती है।
मांगना मरण समान है
दाएज्ज वयणं सोचा, देहट्ठा पंच-देवदा। 152 :: सुनील प्राकृत समग्र