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आत्मसिद्धि के लिए ध्यान जरूरी अविक्खित्तं जदा झाणी, स-तच्चाहिमुहं हवे।
झाणीणं णिव्विग्घ-झाणं, अप्पसिद्धीइ उच्चदे॥58॥ अन्वयार्थ-(जदा) जब (झाणी) ध्याता (अविक्खित्तं) अविक्षिप्त होकर (स-तच्चाहिमुहं) स्वतत्त्वाभिमुख (हवे) होता है तब (झाणीणं) ध्यानी का (णिव्विग्घ) निर्विघ्न (झाणं) ध्यान (अप्पसिद्धीइ) आत्मसिद्धि के लिए (उच्चदे) कहा गया है।
भावार्थ-जब ध्याता-ध्यान करने वाला मन-वचन-काय से अविक्षिप्त अर्थात् अचंल होकर निज आत्म-तत्त्व के अभिमुख होता है, तब उस ध्यानी का वह निर्विघ्न अर्थात निश्चल धर्म-शुक्ल ध्यान आत्मसिद्धि अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है।
अदाता की दशा दाणं जे ण पयच्छंति, णिग्गंथेसु य गच्छए।
जाल व्व हि गिहं तेसिं, मज्जंति हि भवण्णवे॥59॥ अन्वयार्थ-(णिग्गंथेसु) निर्ग्रन्थों में (य) और (गच्छए) गच्छ में (जे) जो (दाणं) दान (ण-पयच्छंति) नहीं देते हैं (हि) वस्तुतः (तेसिं गिहं) उनका घर (जाल व्व) जाल के समान है, [वे] (भवण्णवे) संसाररूपी सागर में (मज्जंति) डूबते हैं।
भावार्थ-जो गृहस्थ निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनियों को तथा चतुर्विध संघ को औषधि, शास्त्र, अभय और आहार दान अथवा यथायोग्य दान नहीं देते, उनका घर जाल के समान है। ऐसे लोग मरण कर संसाररूपी समुद्र में डूबते हैं। जिस प्रकार जाल में फंसा हुआ पक्षी अपना हित नहीं कर पाता, अपितु तड़प-तड़प कर संक्लेश भावों से मरकर संसार में भटकता है, उसी प्रकार लोभी गृहस्थ की दशा होती है।
कषायी स्वहित नहीं जानते कोह-माणग्गहो जुत्तो, माया-लोह-विडंबिदो।
स-हिदं व जाणादि, सुधम्म जिणभासिदं।60॥ अन्वयार्थ-(कोह-माणग्गहं जुत्तो) क्रोध-मान ग्रहों से युक्त (माया-लोहविडंबिदो) माया-लोभ से विडंबित [जीव] (जिण भासिदं सुधम्म) जिन-भाषित सुधर्म को [और] (स-हिदं) स्वहित को (णेव) नहीं (जाणादि) जानता है।
भावार्थ-क्रोधकषाय व मानकषाय रूपी खोटे-ग्रहों से ग्रसित तथा मायाकषाय व लोभकषाय (तृष्णा) रूप भाव से विडंबना को प्राप्त जीव जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गए जैन तत्त्व को अथवा श्रेष्ठतम जैनधर्म को तथा अपनी आत्मा के हित को नहीं जानते हैं। जो अपनी आत्मा को ही नहीं जानते हैं, वे अपना हित कैसे कर
148 :: सुनील प्राकृत समग्र