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धन-संपत्ति, विद्या आदि ऋद्धियों तथा केवलज्ञान को और अधिक क्या कहें, विनय और विवेकपूर्वक सम्यग्ज्ञान की आराधना करने से मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेता है।
ज्ञान की उपयोगिता णाणेण णायदे विस्सं, सव्वं तच्चं हिदाहिदं।
सेयासेयं च बंधं वा, मोक्खं धम्मं किदाकिदं॥49॥ अन्वयार्थ- [ज्ञानी] (णाणेण) ज्ञान से (विस्सं) विश्व को (सव्वं-तच्चं) सभी तत्त्वों को (हिदाहिदं) हित-अहित को, (सेयासेयं) श्रेय-अश्रेय को (बंधं मोक्खं) बंध मोक्ष को (धम्मं वा) धर्म-अधर्म को (च) और (किदाकिदं) कृतअकृत को (णायदे) जानता है।
भावार्थ-ज्ञानी जीव ज्ञान के माध्यम से संसार के सभी तत्त्वों को अपने हित-अहित को, कल्याणकारी-अकल्याणकारी मार्ग को, बन्धन-मुक्ति को, धर्मअधर्म को और करने तथा न करने योग्य कार्यों को अच्छी तरह जानता है और तदनुसार आचरण भी करता है।
ज्ञान आचरण सहित हो बहुणा किं अधीदेण, णडस्सविव दुरप्प!।
तेणाधीदं सुदं सेठें, जो किरियं वि कुव्वदि ॥50॥ अन्वयार्थ-(दुरप्प!) हे दुरात्मा (णडस्सविव) नट के समान (बहुणा अधीदेण) बहुत पढ़ने से (किं) क्या? (तेणाधीदं) उसके द्वारा पढ़ा गया (सुदं) श्रुतज्ञान (सेठं) श्रेष्ठ है (जो) जो (किरिया वि कुव्वदि) क्रिया भी करता है।।
भावार्थ-हे दुरात्मा! नट के समान बहुत पढ़ने से क्या लाभ, यदि उसका आचरण नहीं किया जाता है तो। वस्तुतः उसके द्वारा अर्जित किया गया श्रुतज्ञान ही श्रेष्ठ है जो पढ़कर उसे आचरण में भी लाता है। बिना क्रिया के ज्ञान गधे के बोझ के समान है।
___मोक्षमार्गस्थ होओ पाऊण सम्म-णाणं च, छित्तूण मोहकम्मणिं।
सु-चारित्त समाजुत्तो, होज्ज मोक्ख-पहे ट्ठिदो॥1॥ अन्वयार्थ-(सम्म-णाणं च) सम्यग्ज्ञान (पाऊण) प्राप्तकर (मोहकम्मणिं) मोह कर्म को (छित्तूण) छेद कर (सु-चारित्त समाजुत्तो) सम्यक्चारित्र में अच्छी तरह जुड़कर (मोक्खपहे) मोक्षमार्ग में (ट्ठिदो) स्थित (होज्ज) होओ।
भावार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्तकर, मोहकर्म को छेदकर अर्थात् राग-द्वेष नष्ट कर सम्यक्चारित्र से अच्छी तरह युक्त होकर मोक्ष मार्ग में स्थित होओ। इस प्रकार का रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है।
णीदि-संगहो :: 145