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कुन्दकुन्दस्स सिस्सं, गिद्ध - पिच्छाइरियं त्ति णामजुदं । सुत्तस्स य कत्तारं, गणप्पहाणं च सामिणं वंदे ॥6॥
अर्थ–कुन्दकुन्द के शिष्य, गृद्धपिच्छाचार्य नाम विशेषण युक्त, तत्त्वार्थ-सूत्र के कर्त्ता तथा गणप्रधान उमास्वामी को मैं वन्दन करता हूँ ।
समंतभदं भदं, कइ - तित्थयरं च तक्क चक्किं वा । पढमत्थुदि - कत्तारं, वादिगयाणं सीहं इव वंदे ॥7 ॥
अर्थ - भद्रता की मूर्ति, कवि तीर्थंकर, तर्क चक्रवर्ती, प्रथम स्तुतिकार और वादी-रूपी हाथियों के लिए सिंह के समान आचार्य समंतभद्र को मैं वन्दन करता हूँ। जिणिंद - बुद्धि सें, सुपुज्जपादं च देवणंदि - गुरुं ।
तिय - णाम- जुदं सूरिं, वंदे सव्वट्ठसिद्धि - कत्तारं ॥ 8 ॥
अर्थ - ज्ञानी जिनेन्द्र बुद्धि, श्रेष्ठ पूज्यपाद और देवनंदी गुरु, इन तीन नाम युक्त सर्वार्थसिद्धि के कर्त्ता को मैं नमस्कार करता हूँ।
जोइंदुं अकलंकं, जडासीहं वीर - जिणसेणं । अमिदं च पहाचंदं, माणिक्कादिसूरिणो वंदे ॥ 9 ॥
अर्थ – योगीन्द्रदेव, अकलंक, जटासिंहनंदी, वीरसेन, जिनसेन, अमृतचंद, प्रभाचंद और माणिक्यनंदी आदि समस्त श्रेष्ठ आचार्यों को मैं वन्दन करता हूँ ।
आदिसायर - सूरिं, सूरिं महावीरकित्तिं मुणिपवरं । सम्मदिसायर - विमलं, मुत्तिपहं णायगं वंदे ॥ 10 ॥
अर्थ - मुक्ति पथ के नायक आचार्य आदिसागर, आचार्य महावीरकीर्ति, मुनिप्रवर विमलसागर अथवा विमलरूप सन्मतिसागर को मैं वन्दन करता हूँ । ॥ इदि आइरिय सुणीलसायरेण किदो थुदी संगहो समत्तो ॥ इस प्रकार आचार्य सुनीलसागर द्वारा रचित स्तुति संग्रह समाप्त हुआ ||
126 :: सुनील प्राकृत समग्र