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कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जावे॥ अहवा भावेदु कोवि, लोह-भएणं च अण्णदोसेहिं । तदवि चुदो णो होमि, णयमग्ग-पमाददो कदावि ॥14॥ अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे। तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पद डिगने पावे ॥ णो होमि सुहे तुट्ठो, भीदो दुक्खे कदावि णो होमि। पव्वद-णदी मसाणे, भयभीदो मणाग णो होमि ॥15॥ होकर सुख में मग्न न फूलें, दुःख में कभी न घबरावें। पर्वत-नदी-श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खावें॥ होदु सदा मणो मे, अविचलमवि णिच्चलं जहा मेरू। इट्ठ-वियोगे णिठे जोगे णिच्चं समत्तं भावेमि ॥16॥ रहे अडोल-अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावे। इष्ट वियोग-अनिष्ट योग में, सहनशीलता दिखलावे॥ सव्वे वि संतु सुहिणो, मा णं बीभेज एगजीवो वि। चत्ता वेरं गव्वं, मंगल-गीदं सदेव गायतु ॥17॥ सुखी रहें सब जीव जगत् के, कोई कभी न घबरावे। वैर-पाप-अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे॥ सव्वत्थ-धम्म-वत्ता, पचलदु दुक्कडं च होज्ज फलहीणं। उण्णदी-णाणचरित्ते, मणुय-जम्मफलं च पावेज्ज ।।18 ।। घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावे। ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना, मनुज-जन्म-फल सब पावें॥ जगे ण पसरदु ईदी भीदी वरिसदु सकाल-मेहो वि। राया वि धम्मणिट्ठो, होऊण णयेज्ज सो रहँ19॥ ईति भीति व्यापे नहिं जग में, वृष्टि समय-पर हुआ करे। धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे॥ रोगो मच्चु-अकालो, पसरदु णो हवेज्ज सुहं लोए। अहिंसा परमधम्मो, सव्वत्थ-वित्थरदु सव्वहिदे ॥20॥
मज्झ-भावना :: 123