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अन्वयार्थ-(जो) जो (गुरुस्स) गुरु का (पच्चक्खमह-परोक्खे) प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में (अवण्णवादं) अवर्णवाद (कुणइ) करता है, (तस्स) उसे (पुणो) फिर (जम्मंतरे वि) जन्मान्तर में भी (जिणिंदवयणं) जिनवचन (दुल्लहं) दुर्लभ है।
अर्थ-जो मनुष्य गुरु का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में अवर्णवाद करता है, उसे फिर जन्मान्तर में भी जिनवचन प्राप्त नहीं होते हैं।
जो पालेदि आणं वेजावच्चत्थी सो हि सुसिस्सो।
जो णियतुल्लं मण्णदि सो मूढो दीहसंसारी॥5॥ अन्वयार्थ-(जो) जो (आणं) आज्ञा का (पालेदि) पालन करता है, (वेजावच्चत्थी) वैयावृत्ति की भावना वाला (सो हि सुसिस्सो) वह ही सुशिष्य है, (जो णियतुल्लं मण्णदि) जो अपने समान मानता है (सो मूढो दीहसंसारी) वह मूढ़ दीर्घ संसारी है।
अर्थ-जो गुरु आज्ञा का पालन करता है, वैयावृत्ति की भावना रखता है, वह सुशिष्य है, जो अपने समान मानता है वह मूढ दीर्घसंसारी है।
छठ्ठठ्ठदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं।
अकरंतो गुरुवयणं अणंतसंसारियो भणिओ॥6॥ अन्वयार्थ-(छट्ठट्ठदसमदुवालसेहि) षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दसभक्त (मासद्धमासखमणेहि) मास व अर्द्धमास के उपवास वाला भी (गुरुवयणं अकरंतो) गुरुवचनों का पालन नहीं करता है तो (अणंतसंसारियो भणिओ) वह अनंत संसारी कहा गया है।
अर्थ-षष्ठभक्त, अष्टभक्त, दसभक्त व द्वादशभक्त अर्थात् दो, तीन, चार, पाँच उपवास तथा मास व अर्द्धमास के उपवासों से समय यापन करने वाला भी यदि गुरुवचनों का पालन नहीं करता है तो वह भी अनंत संसारी कहा है।
पढमं चिय गुरुवयणं मुम्मुर जलणुव्व दहइ भण्णंतं ।
परिणामे पुणो तं खु मुणालदल-सीयलं होई ॥7॥ अन्वयार्थ-(पढम चिय गुरुवयणं) प्रथमतः जो गुरुवचन (भण्णंतं) कहते समय (मुम्मर जलणुव्व दहइ) स्फुलिंगे वाली अग्नि के समान जलाता है, (किन्तु) (परिणामे पुणो तं खु) परिणाम में वह ही (मुणालदल-सीयलं होई) मृणालदल के समान शीतल होता है।
अर्थ-प्रथमतः जो गुरुवचन स्फुलिंगे वाली अग्नि के समान जलाता है, वहीं गुरुवचन परिणामकाल में मृणालदल अर्थात् कमलनाल के समान शीतल होता है।
110 :: सुनील प्राकृत समग्र