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आचार्यश्री आदिसागरजी अंकलीकर के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री सुनीलसागरजी महाराज
व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व
आचार्य अकलंकदेव द्वारा विरचित तत्त्वार्थराजवार्तिक में आचार्य शब्द का निरुक्तार्थ किया है "आचरन्ति यस्मात् व्रतानीत्याचार्यः" अर्थात् जिनसे व्रतों को धारण कर उनका आचरण किया जाता है वे आचार्य हैं। तात्पर्य यह है कि जिन सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणों के आधारभूत महापुरुषों से भव्यजीव स्वर्ग मोक्षरूप अमृत के बीजभूत व्रतों को ग्रहण कर अपने हित का आचरण करते हैं, व्रतों का पालन करते हैं तथा अन्य भव्यजीवों को आत्मकल्याण रूप मोक्षमार्ग पर चलने हेतु जैनेश्वरी दीक्षा देते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। हमारा सौभाग्य है कि हमारे इस भारतवर्ष में ऐसे अनेक साधु सन्तों ने अपने ज्ञान, ध्यान, तप एवं सदाचरण से आत्मकल्याण के साथ-साथ आसपास के वातावरण को भी विशुद्ध किया तथा एक प्रशस्त मोक्षमार्ग अन्य साधकों के लिए उपदेशित एवं मार्गदर्शित किया।
इसी परम्परा में बीसवीं सदी में महान आचार्यश्री परमपूज्य, मुनिकुंजर, समाधि सम्राट, अप्रतिम उपसर्ग विजेता, आदर्श तपस्वी, महामुनि, दक्षिण भारत के गौरव स्वरूप, दिगम्बर सन्त आचार्य परमेष्ठी श्री 108 आदिसागर जी महाराज अंकलीकर हुए हैं। जिनके द्वारा बीसवीं सदी के प्रतिकूल वातावरण में भी जैनधर्म की अद्भुत प्रभावना की गयी। उनके द्वितीय पट्टाधीश 1910 ईं को फिरोजाबाद नगर में जन्मे, 1943 ई उदगाँव में दीक्षा ग्रहण करने वाले, 1943 में ही अल्प आयु में आचार्य पद से संस्कारित, शास्त्रों के ज्ञाता, विशुद्ध आचरण करने वाले आचार्य श्री 108 महावीरकीर्तिजी हुए हैं। जिनकी समाधि 1972 में गुजरात के महसाना नगर में हुई। इनके पट्टाधीश, अध्यात्म योगी, आचार्यरत्न, भारत गौरव, धर्मदिवाकर, महातपोविभूति, श्रमणराज, वात्सल्य रत्नाकर, महातपस्वी आचार्यश्री 108 सन्मतिसागरजी महाराज हुए हैं। आचार्य श्री ने सिंहनिष्क्रीडित, सहस्रनाम, चारित्रशुद्धि व गणधर व्रत जैसे महान व्रतों सहित कई व्रतों के लगभग दस हजार निर्जल उपवास किए हैं। 50 वर्षों के संयमकाल में प्रायः 32 वर्ष जितना काल तो केवल उपवासों में व्यतीत किया। आपकी इस तपस्या से कई बार तो वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित हो