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________________ दसण-णाण-चारित्त-तवेहिं सम्म-संजुदो। पण्णो पण्हसहो साहू, सत्ताणं करुणापरो॥4॥ अन्वयार्थ-(सम्म-दंसण-णाण-चारित्त-तवेहिं संजुदो) सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र और तप संयुक्त (पण्णो) प्रज्ञावान (पण्हसहो) प्रश्नसह (सत्ताणं करुणापरो) जीवों के हित के लिए करुणा के भंडार (साहू) साधु होते हैं। अर्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप संयुक्त, प्रज्ञावान, प्रश्नसह, जीवों के हित के लिए करुणा के भंडार अर्थात् दयाभाव से युक्त जीवों की रक्षा में सदा तत्पर साधु होते हैं। संसार-सायरे साहू, जीवाणं तरणी मदो। भव्वपोम्मस्स सूरो व, दह-धम्माण-संजुदो॥5॥ अन्वयार्थ-(दह-धम्माण संजुदो साहू) उत्तम क्षमादि दश धर्मों से युक्त साधु (भव्वपोम्मस्स सूरो व) भव्य जीव रूपी कमलों के लिए सूर्य के समान [तथा] (जीवाणं) जीवों के लिए (संसार-सायरे) संसार-सागर में (तरणी) नौका के समान (मदो) माने गए हैं। अर्थ-उत्तम क्षमादि दश धर्मों से युक्त साधु भव्य जीव रूपी कमलों के लिए चन्द्रमा के समान तथा जीवों के लिए संसार-सागर में नौका के समान तारने वाले माने गये हैं। दिगंबरो णिरारंभो, झाणज्झयण-संजुदो। अप्पसहाव-सल्लीणो, सो जोगी लहदे सुहं॥6॥ अन्वयार्थ-(दिगंबरो) दिगम्बर (णिरारंभो) आरंभ रहित (झाणज्झयणसंजुदो) ध्यान-अध्ययन संयुक्त (अप्पसहाव-सल्लीणो) आत्म स्वभाव में अच्छी तरह लीन (सो) वह (जोगी) योगी (सुहं लहदे) सुख पाता है। अर्थ-जो दिगम्बर, आरंभ रहित, ध्यान-अध्ययन संयुक्त, आत्म-स्वभाव में अच्छी तरह लीन है, वह योगी सुख पाता है। मादा पिदा कुडुंबादि, सव्वे दु दुक्खदायगा। गुरुणो तारेति जीवे, धम्म-हत्थावलंबणा ॥7॥ अन्वयार्थ-(मादा-पिदा-कुडुम्बादि) माता-पिता कुटुम्ब आदि (सव्वे दु दुक्खदायगा) दुःख देने वाले हैं किन्तु (धम्म हत्थावलंबणा) धर्मरूपी हाथ का अवलम्बन देकर (जीवे) जीवों को (गुरुणो) सच्चे गुरु (तारेंति) संसार से तारते हैं। अर्थ-माता-पिता, कुटुम्ब आदि सभी अकल्याण करने वाले व दुःख देने 98 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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