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वेज्जाइविच्च कुणमाण - जणाण दिट्ठी । तस्सिं हवेदि मुणिराय - विचिंतएज्जा । भामंडलो दिणयर व्व इमस्स तेजो दिप्पेज्जदे मुणिवरस्स कधं कहेज्जा ॥29॥
इधर वैय्यावृत्ति करते हुए लोगों की दृष्टि महावीरकीर्ति की कीर्ति पर पड़ती है । सन्मतिसागर जी भी उन मुनिवर (आचार्य) की ओर दृष्टि करते हैं तब उन्हें ज्ञात होता है आचार्य का आभामंडल दिनकर की तरह तेज युक्त दीप्त हो रहा है । सो वह कह रहा है उनकी कीर्ति कथा को ।
मांगी तुंगी चाउम्मासो
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अत्थेव वास - विहरंत- अणेग-खेत्तं दंसेविण गदओ अवरे पदेसे । गंतुं च इच्छमि अहं तथ खेत्तवालो
मं रोहदे सिहर - तुंगिय मंगि-मंगे ॥30॥
आचार्यश्री कहते हैं - यहाँ विहार करते, अनेक क्षेत्र देखकर बहुत समय हो गया। अब अन्य प्रदेश में जाने की इच्छा करते हैं, परन्तु क्षेत्रपाल एवं मांगी-तुंगी के तुंग शिखर मुझे रोक रहे हैं।
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सो कित्ति - सील - मुणिराय - इधे हु चिट्ठे कज्जे तवे सुदवरे सुद- साहणाए । अप्पाणु-सासण-महो महपुण्णएणं पत्तेज्ज अत्थ चदुमास - पणे दु छक्के ॥31॥
1965 का चातुर्मास यहाँ मांगीतुंगी में आत्मानुशासन की महनीयता वाला होगा। महापुण्योदय से 'साधोः कार्य तपः श्रुते' रूप लक्षण श्रुत साधना के लिए है । अतः वे महावीरकीर्ति इस स्थल पर चतुर्मास के लिए ठहर गये ।
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ते सावगा हु अदि पुण्ण-सुधण्ण-धण्णा मज्ज साविगगणी बहुसेव - सेट्ठी ।
सम्मदि सम्भवो :: 93