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कप्प व्व कप्प-किसगाण सुभूमि-भागा
रण्णाण वाणप्फदि फलाण सुदाण-मुत्ता॥7॥ यह भारत क्षेत्र विशाल, रमणीय, उत्तम खेत-खलिहानों से पूर्ण, धान्य की बहुलता वाला, धन-वैभव एवं खनिज संपदा युक्त कल्प युग की तरह है। कृषकों के उत्तम भूमि भाग कल्प ही हैं और अरण्यों की वनस्पतियाँ फल रूपी मुक्ताओं की मुक्तदान-खुले हस्त से दान करती हैं।
8 आउस्समाण-मणुआ मणुजी मणुण्णा सोहग्गसालि सयला परमप्प सनी। सोक्खे पदुक्ख सयले सम-भाव सीला
संसार-भोग परिणाम विचिंत जुत्ता॥8॥ वे भरतक्षेत्रवासी मनुज-मनुजी मनोज्ञ हैं, ये सौभाग्यशाली सभी परमात्मा के प्रति श्रद्धा शील हैं ये संसार भोगों के परिणामों की चिन्ता युक्त भी सुख-दुःख में समभाव रखते हैं।
मज्जंग-तूरिय-विभूस-सिजंग-जोदी दीवंग-गोहिगण-भोयण-पत्त-वत्थं । सव्वे हु कप्प-तरु-राजिद-खेत्त-पुव्वे
अज्जेव वाणप्फदि-बहुल्ल इमो वि खेत्तो॥9॥ मद्यांग, तूर्यांग, विभूषांग, स्रजंग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहाँग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग सभी पूर्व में कल्पवृक्ष रूप में प्रचलित थे। आज हमारे इस भरतक्षेत्र में बहुत सी वनस्पतियों की प्रमुखता उसी रूप में हैं।
10 अम्हाण इच्छ-बहु-कारण-छिण्ण-भिण्णं कुव्वेंति रण्णय वणप्फदि कप्प-रुक्खं। तत्तो सुकालय-अकाल-अभाव जादो
आसास-माणस-मणा ण हु किंचि चिंते॥10॥ ये अरण्य की वनस्पतियाँ कल्पवृक्ष को प्राप्त हैं। हम आसक्त मन किंचित् भी नहीं सोचते हैं। हम अपनी बहुत सी इच्छा करते हुए उन्हें अकारण विनष्ट कर रहे हैं, उससे ही सुकाल भी अकाल या अभाव में परिणत हो जाता है।
सम्मदि सम्भवो :: 45