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पंडिदा पण्ण- कंतिल्ला, कव्वसिद्धा विसारदा ।
भासा - विविह- राजेज्जा, वादीभ - सिंहणी सुधी ॥46 ॥
वह शारदा, पंडिता, प्रज्ञकंतिज्ञा, काव्यसिद्धा, विशारदा भाषा विविधा, वादीभसिंहिणी, एवं सुधी है।
47
सव्वसंवादिणी मादू, सुब्भा - सुभासिणी सुदा । तं णमिण वाणिच, कव्वे सम्मदि - संगदिं ॥47 ॥
सर्वसंवादिनी, माता, शुभ्रा, सुभाषिणी, श्रुता है, उनकी वाणी को नमनकर सन्मति की संगति के प्रति भाव रखकर काव्य में प्रवृत्त होता है ।
48
कवीणं कव्व-कम्मो त्थि, रमणिज्जत्थ- सम्मगो ।
जुत्तिणात् पुण्णो वि, सम्मदी सम्मदी हवे ॥48॥
कवियों का काव्यकर्म रमणीय एवं सम्यक् होता है । वह युक्ति से युक्त पूर्ण सन्मति देने वाला सन्मतिकाव्य है ।
49
गीवंती - गुरुणी गीदा, गाहा गाणि - गीदिगा ।
सिंगार-रस- पुण्णा - णो, सिंगारे कव्व-गीयदे ॥49 ॥
गीवंती, गुरुणी, गीता, गाथा, गीहणी एवं आप गीतिका हो । आप श्रृंगार रस पूर्ण नहीं, श्रृंगार में गीत यति होती है तो काव्य का एक अंश है।
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सुर-सुंदरि - इच्छंता, सिंगारे गीत - गायणं ।
मिच्छंता पोसगा अम्हे, कव्वे णो रुचि णो गदी ॥50॥
मिथ्यात्व पोषक है ऐसे काव्य में रुचि काव्य में गति बाधक नहीं होती है। सुर-सुन्दरी के इच्छुक शृंगार के प्रति गति, उसका गायन हमारी रुचि नहीं ।
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कव्वाणुसासणे बंधा, वागरण- कलासणे । रसाणुसित्तक्रव्वंगे, रसायिणी तु सारदे ॥51॥
भो रसायिणी शारदे ! आप रसानुसिक्त काव्यांगों में प्रवृत्ति कराएगी। क्योंकि
सम्मदि सम्भवो :: 31