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________________ यहाँ पर समुद्घाद परिशीलन हुआ । केवलियों के केवलज्ञान पर भी प्रकाश डाला गया। केवलज्ञानी के ज्ञान में तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ एक ही समय दर्पण की तरह झलकते हैं। साधु की गहराई चरित्र निष्ठता श्रुत अनुशीलन में है। मुनि सुनीलसागर ऐसे साधु, श्रुत शील एवं विचारशील हैं। 51 जो इंचलकरंजे हु, तप- झाण-रदे सदा । पंचत्थिकाय-सज्झाय, पच्छा सव्वत्थसिद्धियं ॥51॥ संघ इचलकरंजी में तप, ध्यान आदि में रत सदैव पंचास्तिकाय के स्वाध्याय को प्राप्त रहा, फिर सर्वार्थसिद्धि के स्वाध्याय में रत हो जाता है । 52 छद्दव्व णाण-विण्णाणं, भेद-विण्णाण-कारणं । जाति मुणएंति त्थि, अत्थित्त विसयं अवि ॥52॥ संघ के साधु छहद्रव्य के विषय में जानते हैं, पर आज उसके ज्ञान, विज्ञान और भेद - विज्ञान के कारण को भी जानने में समर्थ, आत्मप्रदेश के अस्तित्व को विषय को समझते हैं। 53 तच्चत्थ-सुत्तणेदूणं, पुज्जपादेण वक्खए । सव्वत्थसिद्धि-सिद्धी, तत्थं सव्व पयोजणं ॥53॥ तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों को लेकर पूज्यपाद स्वामी द्वारा जो व्याख्याएँ की गयी वह सर्वार्थसिद्धि टीका में है । सर्व सिद्धि से अर्थात् समस्त अर्थ सिद्धि के प्रयोजन को जिसमें प्रस्तुत किया गया वह तत्त्व के अर्थ अर्थात् प्रयोजन का कारण सर्वार्थ समस्त प्रयोजनों (समस्त तत्त्वों के) कारणों पर प्रकाश डाला है। 54 विहि - विहाण - सज्झायं, अनंत भाग - सत्थए । अत्थे सव्वण्हु भासित्थं, सुत्तं गण - ससुत्त ॥54॥ सर्वज्ञ द्वारा अर्थ को निरूपित किया जाता है । इस अर्थ को उनके गण - गणधर (शिष्य) सूत्रबद्ध करते हैं। शास्त्रों में उसका अनंतभाग ही होता है। जिसकी विधि एवं विषय वस्तु स्वाध्याय में रखते हैं। 250 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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