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इन्दौर में प्रवास करते हुए सुनीलसागर जी आदि मुनि काँच मंदिर को देखते हैं जो जर्मन नक्कासी युक्त था। यहाँ शीश महल, समवशरण मंदिर एवं रतनलाल जी से तत्त्वचर्चा आदि करके पावागिरि ऊन पहुँचे। पासगिरिस्स पंचकल्लाणगो
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संघो चरेदि कसरं च महेसरंच सो धामणोद धरमं लुहरिंच आदि। पासंगिरिं च पण-कल्लणगं च हे,
गच्छेदि गाम बगवं बलिरोहणं च॥9॥ संघ कसरावाद, महेश्वर, धामनोद, धरम पुरी, लुहारी आदि के पश्चात् पार्श्वगिरि के पंचकल्याणक के निमित्त जा रहा था, तब बगवां की बलि रोध को प्राप्त हुए।
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हिंसा दु हिंस जण-मूग-पसूण हिंसा
णो सक्किदी भरह-खेत्त-अहिंस-जुत्ता। पासंगिरिं मुणिसरो सह बालसूरी
अज्जि त्थि सा विजय-अग्ग-इधेव अज्ज ॥20॥ हिंसा तो हिंसा है, जनहिंसा हो या मूक पशुओं की हिंसा। भारत क्षेत्र की अहिंसक संस्कृति ऐसी नहीं है। यही संदेश देते हुए मुनि सुनीलसागर पार्श्वगिरि को प्राप्त हुए जहाँ मुनिवर आचार्य सन्मतिसागर, बालाचार्य योगीन्द्रसागर एवं आर्यिका विजयमति भी इस प्रसंग पर अग्रणी बनी।
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पंथे वि खाम खरगोण मणावरादिं पत्तेज्ज बावणगजं बडवाणि ठाणं। आदिस्सरं जिण मुणीस णमंत संघो
बाबण्ण-गज्ज-मधुमक्खिपहारजादो॥21॥ पथ में (मार्ग में) खामखेड़ा, खरगोन, मनावार आदि के पश्चात् बड़वानी बावनगजा के सुरम्य स्थान को देखते हैं। प्रथमेश आदिनाथ को नमन करता हुआ संघ बाबनगजा में मधुमक्खियों के प्रहार युक्त हुआ।
222 :: सम्मदि सम्भवो