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वात्सल्यता, भूतवलि-पुष्पदंत के सूत्रसार और अर्हत बलि की वाणी में जो सार था उसे समझाया, उसके अनंतर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक ग्राम सीमा को संघ प्राप्त हुआ। उपसग्गे वि समित्तं
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मोद्देहए हु मवई पडि गच्छमाणो ओसग्ग-जुत्त-मणुजाण विणिंदगाणं मोणो चरेज्ज मुणि-सोम्म-सहाव-सीलो
एणं विणा ण हु वि किंचि समं च झाणं॥65॥ मौदहा के पश्चात् संघ मबईया जाते हुए निंदकजनों के उपसर्ग को प्राप्त हुआ। सो ठीक है मौन मुनि होते हैं, वे सौम्य स्वभावी होते हैं। इसके बिना समता व ध्यान आदि संभव नहीं।
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णिग्गंथ गंध रहिदो अणुवट्टदे हु सो लोगिगो करण-कज्ज-विहीण-साहू। संकप्प-कप्प-तज-साहु-सुसाहणाए
भव्वादिभव्व परिणामि णमेज्ज जोग्गो॥66॥ निश्चित ही निर्ग्रन्थ तो ग्रन्थ (बाध्य अभ्यंतर परिग्रह) रहित विचरण करते हैं। वे लौकिक कार्यो से विमुक्त सम्यक् क्रिया युक्त हैं, वे संकल्प विकल्पों से मुक्त अपनी सम्यक् साधना से भव्यातिभव्य परिणामी होते हैं। वे प्रणाम योग्य होते
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सो चिन्तमाण सूरी दु, तवोणिट्ठ तवोधणी।
पत्तेज्ज पद णिक्खेवे, छतरपुर-सीमए॥67॥ वे चिन्तनशील सूरी तपनिष्ट तपोधनी छतरपुर नगर की सीमा में पद निक्षेप करते हैं।
॥इति दस सम्मदी समत्तो॥
सम्मदि सम्भवो :: 195 .