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नाराच
दसम सम्मदी
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सु- भव्वव-जीव-तित्थ तित्थ वंद-वंद वंदणं अभव्व जीव णेरगम्म जत्थ जत्थ छंदणं । अपुव्व एस सम्मि सेल - कूड - कूड सिद्धए पदत्त वास - कोडि - कोडि पुण्ण- फल्ल सत्तिए ॥ 1 ॥
भव्य जीव इस सम्मेदशिखर शाश्वत तीर्थ की बारंबार वंदना करते हैं। अभव्य जीव नरक गामी यात्रा युक्त यत्र तत्र परिभ्रमण करते हैं । यह अपूर्व तीर्थ है, इसके प्रत्येक कूट सिद्ध पुरुषों की गाथा गाते हैं तभी तो जो इसकी वंदना करते वे कोटिकोटि उपवास एवं पुण्य फल से शक्ति पाते हैं ।
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अत्थेव पंचमि सुदे तय-मुत्ति-ठाणं आदिं महं च विमलं जिठ-सुक्क पक्खे। पच्चासि साहु मुणिराय सुसेट्ठि वग्गा अज्जी गणी - पहुदि- चिट्ठ समत्त लुंचे ॥2 ॥
सम्मदेशिखर जी में श्रुत पंचमी (30 मई, ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी) पर पच्चासी साधुओं, आर्यिकाओं आदि सहित श्रेष्ठीवर्ग के सानिध्य में आचार्य आदिसागर, आचार्य महावीरकीर्ति एवं आ. विमलासागर की मूर्तियों स्थापित की गयी और केशलोंच भी हुआ ।
सम्मदि सम्भवो
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