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धवल दौड़ते, गतिशील होते मेघ आनंद देते ही हैं। उसमें भी वायु का प्रवाह अति आनंददायी बनाता है। यही तपस्वी के ताप को क्षय करता, पवन शीतल वाहिनी ले इन श्रमणों के लिए ध्यान में बाधक न बन ये पवन साधकों की साधना को रम्य बना देते हैं।
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चोहस्सए अहग-बावण-गण्णधार वंदेज्ज कुंथु-छियणव्वय-कोडि-कोडिं। छिण्णाव-कोडि-वियतीस लखं सहस्सं
वालीसए सद-मुणीण-सरंत-अत्थ॥ 53॥ गणधर कूट पर चौदह सौ बावन गणधरों, कुंथुप्रभु, छयानवें कोड़ाकोड़ी छ्यानवें कोटी, बतीसलाख, छयानवें हजार सात सौ बयालीस मुनिराजों का स्मरण करते हुए वंदना करते हैं।
54 सो णाण कूड गुण-णाण-सुसम्मदिस्स कत्तुं इधेव चरुसेण-णिवेण अत्थ। कोडिप्पमाण-उववास-फलं फलेज्जा
संघे सहेव सिरि सोमधरेण किज्जा ॥54॥ आचार्य श्री संघ सहित चारुसेन राजा के द्वारा बनवाई गयी ज्ञानधर कूट पर ज्ञान-गुण एवं उत्तम सन्मति के करने के लिए यहाँ की वंदना करते हैं। भाव सहित वंदना से एक कोटी प्रमाण उपवास का फल फलीभूत होता है। यहाँ राजा सोमधर के द्वारा चतुर्विध संघ सहित वंदना की गयी थी।
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कोडीणु कोडि-इग-पेतलिसं लखा हु साहस्स-सत्त-णव-से चदुलीस-साहू। कूडे हु मित्त-णमि-आदि-गदा हु मोक्खं
पिम्मेज्जदे अमर-मेह-ससंघ जत्तं ॥55॥ मित्रधर कूट से नमि प्रभु आदि नौ सो कोडाकोड़ी एक करोड़, पैतालीस लाख सात हजार नौ सौ चालीस मुनि मोक्ष गये। यह चरण-पीठ अमरसेन राजा द्वारा बनवाई गयी यहाँ पर मेघदत्त चतुर्विध संघ सहित आया।
170 :: सम्मदि सम्भवो