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________________ ......... ..... और सनातन धर्मकीं बातो में और आपकी बातों में फर्क है ? हमतो इतना हीं जानना चाहते हैं ! " यून्यश्रीयो उह्यु डे-“ महानुभावो आप लोग भी व्यापारी हैं, हजारों का नफा-नुकशान समजनेकी हैंसियत रखते हैं - सीधी-सादी वात होते हुए भी विचारोकी पकड़ के कारण लोंगों के सामने विकृत करके रखने में क्या फायदा ? संन्यासी महाराज जो कहते हैं उसमें रहे हुओ सत्यको स्वीकारने में हमें कोई संकोच नहीं ! किंतु सत्य तो है तो हैं ! उसे अपनी बुद्धि के अनुरूप बनानेका दुष्प्रयत्न तो सत्यको विकृत बना देता हम जैनधर्मी ईश्वरको पूर्ण रुपसे मानते हीं हैं ! देखो ! ये हजारों मंदिर लाखों—क्रोडोंकीं लागतके जैनोंने ही बनवाये उनकी पूजा आदि भी कितनी भाब - भगति से की जाती हैं ? जैनी ईश्वरको नहीं मानते है ! यह कहना सरासर झूठ हैं ! हाँ ! ईश्वरको मानते हुऐ भी उसके स्वरूपमें भेद हैं, अनंतगुण संपन्न अनंतशक्तिशाली परमेश्वर–परमात्माको ईश्वरके रूपमें जैनी मानते हैं ! फिर भी ईश्वर पर जगत्कर्तृत्व जो दलीलोंके सहारे रोपा गया है, उस पर जैनोंका विश्वास नही ! આટલું પૂજયશ્રીએ કહી જગત્કર્તૃત્વવાદનું ટુંકું' નિરૂપણ કરી તેના ખુલાસાએ રજુ કર્યાં, જે સાંભળી આવેલ સનાતનધમી ખૂબ પ્રસન્ન થયા. छेसे तां खेभे - 'महाराज ! सनातन-धर्म और जैनधर्म में खास फर्क क्या ? यह जानना जरुरी हैं- पूज्यश्री उद्धुं डे ૫૧
SR No.032388
Book TitleSagarnu Zaverat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsagar
PublisherAgmoddharak Granthmala
Publication Year1980
Total Pages370
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size20 MB
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