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(प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड होने के बाद भी इन्द्रियविषयों के प्रति आकर्षण बना रहता है, पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष बने रहते हैं तो वह दुःख की शय्या बन जाती है। मैं समझता हूँ कि आप प्रव्रज्या को सुख की शय्या बनायेंगे।” इसके साथ ही आचार्य श्री ने बताया कि साधु सावध प्रवृत्तियों का तीन करण एवं तीन योग से जीवनभर के लिए त्याग करता है। वह न तो स्वंय सावद्य (दोषपूर्ण) प्रवृत्ति करता है, न दूसरों से कराता है और न ही करते हुए का अनुमोदन करता है। वह मन से बुरा नहीं सोचता, वाणी से बुरा नहीं बोलता और काया से बुरा नहीं करता हुआ मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियों का संयम करता है। वैराग्य काल में साधु-साध्वी के सान्निध्य में रहने से दीक्षार्थी साध्वाचार से परिचित तो थे ही, अब गुरुमुख से साधुचर्या के महत्त्व को सुनकर उन्हें दीक्षा अंगीकार करने में पलभर की देरी भी असहज प्रतीत होने लगी। तभी आचार्यश्री ने 'करेमि भंते... सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं....' के शास्त्रीय पाठ से उन्हें भागवती दीक्षा प्रदान की। स्तब्ध होकर दर्शक बना हुआ पाण्डाल सहसा "मुनि हस्ती की जय, मुनि चौथमल की जय, साध्वी रूपा की जय, साध्वी अमृत कंवर की जय” करते हुए जयकार | से गूंज उठा।
दीक्षा प्रदान करने के अनन्तर मुनि श्री हस्तिमल्ल जी म. आदि की शिखा के अवशिष्ट केशों का लुंचन किया गया। यह लुंचन प्रतीक बना साध्वाचार के उत्कट मार्ग पर आरोहण का। केशलोंच साध्वाचार की परम्परा रहा है। यह परीषह-जय की कसौटी है। आचार्यश्री ने नवदीक्षित साधुद्वय को स्वयं की निश्रा में, साध्वी रूपासती जी को बड़े धनकंवर जी म.सा. की निश्रा में तथा साध्वी अमृतकंवर जी को छोटे राधाजी म.सा. की निश्रा में रखने की घोषणा
की।
श्रमणधर्म अंगीकार करने के उपरान्त अभी नवदीक्षितों का परीक्षा एवं पर्यवीक्षा का काल चल रहा था। आचार्य श्री ने अत्यन्त सावधान करते हुए नवश्रमण-श्रमणियों को पुनः पुनः साधुवादपूर्वक श्रमण जीवन का स्वरूप प्रस्तुत किया और समझाया कि प्रतिकूल अथवा अनुकूल सभी प्रकार के घोरातिघोर परीषह आने पर भी अपने श्रमणत्व के मनोबल को क्षीण मत होने देना।
दशवैकालिक सूत्र में निरूपित श्रमण के कर्तव्यपालन पर भी आचार्यश्री ने बल दिया तथा षट्जीवनिका की वाचना देकर साधु के षट्कायप्रतिपाल स्वरूप को उजागर किया। साधु-साध्वी जीवन पर्यन्त पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय (द्वि-त्रि-चतुर्-पंचेन्द्रिय) के जीवों की विराधना से बचते हुए षट्काय जीवों के प्रतिपालक होते हैं।
सात दिनों का पर्यवीक्षाकाल समापन पर था। वि.सं. १९७७, माघ शुक्ला नवमी तदनुसार १७ फरवरी १९२१ गुरुवार के शुभ दिन अजमेर में ही आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के मुखारविन्द से नवदीक्षित साधु-साध्वियों की बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई। वे छेदोपस्थापनीय चारित्र में आरूढ़ हुए। मुनिहस्ती का चारित्र में आरोहण हो गया। अब वे पंच महाव्रतों के पालक, ईर्या आदि पाँच समितियों के आराधक एवं मनोगुप्ति वचनगुप्ति, एवं कायगुप्ति के धारक | महान् साधक बन गए । दशवैकालिक सूत्र में निम्रन्थ साधु की इसी प्रकार की विशेषताएँ बताते हुए कहा गया है -
पंचासवपरिण्णाया, तिगुत्ता छसु संजया।
पंच निग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ।।-दशवकालिक -३.११ ___ निर्ग्रन्थ साधु पाँच आस्रवों के त्यागी, तीन गुप्तियों से गुप्त , षट्काय जीवों की यतना करने वाले, पाँच | इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, धीर एवं ऋजुदर्शी होते हैं।