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प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड
वटवृक्ष के नीचे सुशोभित हो रहे थे। रत्नवंश के सन्तों में आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा. के अतिरिक्त स्वामी जी श्री हरखचन्दजी म.सा, श्री लाभचन्दजी म.सा. श्री सागरमल जी म.सा. , श्री लालचन्दजी म.सा. पाट पर विराजमान थे। बाबाजी श्री सुजानमलजी म.सा, श्री भोजराजजी म.सा. एवं अमरचन्दजी म. सा. नागौर के श्रावकों में विशेष धर्मध्यान एवं तपस्या होने तथा समय की अल्पता के कारण नहीं पधार सके थे। सन्तों के समीप ही भूमि पर | महासती श्री छोगाजी, बड़े राधाजी, पानकंवर, धनाजी, इन्द्रकंवरजी, केसरकंवरजी की शिष्या राधाजी, भीमकंवरजी की शिष्या दीपकंवर जी आदि ठाणा १९ का सतीमंडल भी विराजित था। अनेक श्रावक श्राविकाएं सामायिक का धवल वेश धारण कर मंच के सम्मुख अपना ध्यान केन्द्रित कर मन ही मन साधु-जीवन को धन्य-धन्य कह रहे थे। वे चिन्तन कर रहे थे कि हम तो एक मुहूर्त या कुछ काल के लिए ही सामायिक में रहते हैं, किन्तु वे धन्य हैं जो जीवन भर के लिए तीन करण एवं तीन योगों से सावध प्रवृत्ति का त्याग कर सामायिक अंगीकार करते हैं। कुछ ऐसे भी लोग थे जो स्वयं को संयम मार्ग पर आरूढ़ होने में असमर्थ जानकर उसी प्रकार अपुण्यशाली मान रहे थे जैसे श्रीकृष्ण ने अपने को दीक्षित नहीं होने के कारण अधन्य एवं अकृतपुण्य समझा था। “अहं णं अधण्णे अकयपुण्णेणो संचाएमि अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए जाव पव्वइत्तए।" अंतगडदसासूत्र, वर्ग ५, अध्ययन १) सामायिक वालों के पीछे जन सैलाब को शान्त कर बिठाया जा रहा था, तथापि वह मैदान में समा नहीं रहा था। अतः वृक्ष की डालियों एवं गाड़ियों की छतों पर खड़े होकर भी इस समारोह का आनंद लेने वाले कम नहीं थे।
चारों मुमुक्षु सांसारिक बग्गी से उतरकर मोक्ष की बग्गी में आरूढ़ रत्नत्रयाराधक आचार्यों, सन्तों एवं सतीमंडल के चरणों में पहुंचकर सविधि वन्दन करने लगे। तिक्खुत्तो के पाठ से तीन बार वन्दन करने के पश्चात् मांगलिक पाठ का श्रवण कर वे वेश परिवर्तन एवं मुंडन के लिए बने कक्षों की ओर गए। चारों में अदम्य उत्साह झलक रहा था। सांसारिक अलंकृत वेशों को सदा के लिए त्याग कर वे जब मंच की ओर बढ़े तो मानो संदेश दे रहे थे "- सब्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा” (उत्तराध्ययन १३.१६) अर्थात् ये समस्त अलंकार एवं विविध वेशों का आकर्षण हेय है। उनके द्वारा धारित श्वेत वर्ण के वेश मन को निर्मल बनाने की प्रेरणा कर रहे थे। श्वेतवर्ण निर्मलता एवं शान्ति का प्रतीक है। मुख पर बंधी मुखवस्त्रिका निर्दोष भाषण एवं मौन संधारण का संकेत कर रही थी। एक हाथ में धारित रजोहरण न केवल जीवरक्षा का प्रतीक दृग्गोचर हो रहा था, अपितु वह मन से राग-द्वेष की रज को दूर करने की प्रेरणा कर रहा था। दूसरे हाथ में पात्रों की झोली अकिञ्चन साधक बनकर अभिमान को विगलित करने का संदेश दे रही थी। अब वे ऐसे साधना मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए उद्यत थे, जिसमें यावज्जीवन कंचन एवं कामिनी का पूर्ण त्याग होता है। वे न पादत्राण धारण कर सकते हैं, न किसी वाहन में सवारी कर सकते हैं, न ही स्नान एवं विभूषा का वरण कर सकते हैं। उनका तो एक मात्र लक्ष्य अपने को साधकर सदा के लिए मुक्ति का वरण करना होता है। शीत,उष्ण, भूख-प्यास आदि बावीस परीषहों को सहन करते हुए मान-अपमान, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि में समभाव ही उनकी साधना का प्रथम चरण होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदापसंसास, तहा माणावमाणओ ॥-उत्तरा. १९.९१ साधु विषम परिस्थितियों में भी समभाव में जीता है। यही उसका प्रथम चारित्र ‘सामायिक' है। निर्दोष भिक्षावृत्ति ही उसके भौतिक शरीर का सम्बल है, वह घर-घर जाकर संयम की यात्रा के लिए आहारादि की भिक्षा लाता है। इसमें भी गवेषणा के ४२ नियमों से बंधा होता है। संयम-यात्रा हेतु शरीर के निर्वाह के लिए गोचरी लेकर |