________________
[पंचम खण्ड : परिशिष्ट
८५३ लेकर प्रतिपल स्मरणीय परमाराध्य महामहिम आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा.के शासनकाल तक स्व-प्रेरित संघ व्यवस्था का गौरव बनाए रखा। आचार्य भगवन्त संघ को प्रमुखता देने वाले युग पुरुष रहे। उस महापुरुष की संघ के प्रति अटूट आस्था देखकर श्रावकों के मन में संघ-व्यवस्था को और अधिक सक्रिय, सक्षम और संगठित बनाने की भावना जगी और विक्रम संवत् २०३२ में ब्यावर (राजस्थान) में अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ की औपचारिक रूप से स्थापना की गई।
संघ-स्थापना के पश्चात् संघ-उद्देश्यों की पूर्ति में सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना से संघ-सदस्य इसकी प्रवृत्तियों के पोषण और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सतत सक्रिय हैं। संघ के प्रमुख उद्देश्यों में श्रद्धा व विवेक के साथ ज्ञान-दर्शन-चारित्र का रक्षण एवं वृद्धि करना, अध्यात्मप्रेमी बन्धुओं की वात्सल्य भाव से सेवा व सहायता करना, त्यागानुरागी - वैरागी भाई-बहिनों को सहयोगपूर्वक आगे बढ़ाना, चतुर्विध संघ की सार-संभाल एवं सहयोग करना , चतुर्विध संघ की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना, संघ में संचालित नैतिक व आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना, महापुरुषों के जन्म-दीक्षा-पुण्य तिथि एवं विशिष्ट प्रसंगों को साधनापूर्वक मनाना, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन एवं समाज-सुधार के लिए आवश्यक कार्य करना, सामायिक-स्वाध्याय का प्रचार-प्रसार करना, निर्व्यसनता-शाकाहार सदाचारमय जीवन शैली का प्रचार-प्रसार करना, भारतीय प्राच्य संस्कृति एवं आगम-साहित्य का रक्षण, प्रकाशन एवं विक्रय करना, प्राकृत - संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन एवं अनुसंधान की व्यवस्था करना, अध्यात्म-साधना एवं रत्नत्रय आराधना के लिये प्रशिक्षण की व्यवस्था करना, साधक - व्यक्तित्व का निर्माण करना, हस्तलिखित ग्रन्थों, कलात्मक कृतियों, पुरातत्त्व व ऐतिहासिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करना, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विकास हेतु नैतिक व आध्यात्मिक पाठशालाओं, स्वाध्याय केन्द्रों, महाविद्यालयों एवं उच्च अध्ययन केन्द्रों की स्थापना करना, मानव-सेवा, जीवदया, समाज-सेवा और पारमार्थिक कार्य करना सम्मिलित हैं।
सामायिक-स्वाध्याय, साधना और सेवा के विविध सोपानों के साथ संघ में ज्ञान-ध्यान, त्याग-तप, साधना-आराधना के कार्यक्रम सुव्यवस्थित चलें तथा संघ-सदस्यों में परस्पर प्रेम-मैत्री सहयोग की भावना और आत्मीयता बढ़े, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है।
संघ की रीति-नीति का निर्धारण संघ-संरक्षक एवं शासन सेवा समिति के सदस्य करते हैं जिसे कार्यकारिणी और साधारण सभा के अनुमोदन के पश्चात् मूर्त रूप दिया जाता है। संघ व्यवस्था के लिए अध्यक्ष, कार्याध्यक्ष , उपाध्यक्ष, महामंत्री, अतिरिक्त महामंत्री, कोषाध्यक्ष, सह-कोषाध्यक्ष , मंत्री, सहमंत्री, क्षेत्रीय प्रधान एवं कार्यकारिणी सदस्य देश भर में फैले संघ-सदस्यों में धर्म के संस्कार जगाने, ज्ञान-क्रिया के समन्वय के साथ उन्हें आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। महापुरुषों के जन्म, दीक्षा एवं पुण्य-प्रसंगों पर साधना-आराधना के सामूहिक कार्यक्रमों की सफल क्रियान्विति से सकल जैन समाज गुरु हस्ती के सामायिक स्वाध्याय और गुरु हीस के व्यसन - त्याग सन्देशों को जीवन व्यवहार में आत्मसात् करने हेतु अग्रसर हैं। सम्प्रदाय में रहते हुए सम्प्रदायवाद का पोषण नहीं किया जाता और 'गुरु एक, सेवा अनेक' की उक्ति जीवन - व्यवहार में साकार करते हुए संघ समाजहितचिन्तन में सक्रिय है। गुणग्राहकता के दृष्टिकोण के कारण संघ-सदस्यों की वृत्ति में किसी की निन्दा - आलोचना का भाव नहीं है। अत: रत्नवंशीय श्रावक-श्राविकाओं का वर्चस्व सकल जैन समाज पर है। हमारे संघ में प्रखर वक्ता हैं, प्रबुद्ध चिन्तक हैं और प्रतिभा की कमी नहीं है, इन सब विशेषताओं के कारण हमारा प्रभाव सर्व