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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं चाहता था। अत: घूम-घूमकर मणिहारी का सामान बेचा। माता को यह प्रक्रिया नहीं जंची। वस्तुतः माता रूपा देवी चाहती थी कि उनका लाडला हस्ती व्यापार में प्रवृत्त न होकर अपना अध्ययन जारी रखे तथा शेष समय माता के साथ धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करे । अतः उसने सुझाव दिया कि पिछले आठ वर्षों से मणिहारी की विपुल सामग्री सुरक्षित रखी है, क्यों न इसे किसी व्यापारी को बुलाकर अन्य दो तीन ईमानदार एवं अनुभवी व्यापारियों की मध्यस्थता में बेच दिया जाए। हस्ती ने ऐसा ही किया। वह पौशाल से लौटते समय दुकानदारों को बुला लाया और पिता केवलचन्द जी के देहावसान के पश्चात् से बन्द दुकान का मणिहारी का सारा सामान बेच दिया गया। इससे पुराने सामान का उपयोग भी हो गया तथा जीवन यापन भी सुकर हो गया। • सन्त-सतियों का पुनः सुयोग
प्रचण्ड विभीषिकाओं के पश्चात् पीपाड़ में सन्तों एवं साध्वियों का पदार्पण हुआ, जिससे यहाँ का वातावरण | धर्ममय हो गया। महासती तीजांजी महाराज को रुग्णता के कारण दीर्घावधि तक पीपाड़ में ही विराजना पड़ा। उनके पुनीत सान्निध्य में रूपा देवी ज्ञानार्जन, पुनरावृत्ति एवं तप-साधना में आगे बढ़ती रही।
इसी समय वि.संवत् १९७५ (सन् १९१८) में आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज की सम्प्रदाय के सन्त स्वामीजी श्री भोजराज जी महाराज, श्री अमरचन्द जी महाराज एवं श्री सागरमल जी महाराज ठाणा ३ पीपाड़ पधारे और अस्वस्थ महासती श्री तीजांजी को दर्शन दिए। इन तीनों तप:पूत श्रमणों के दर्शन एवं प्रवचन-श्रवण से रूपा देवी ने चिरकाल से संजोये हुए वैराग्य भाव को और संवारा । इन तीनों सन्तों को जब यह विदित हुआ कि रूपादेवी संसार से विरक्त हो दीक्षा ग्रहण करने के लिए लालायित है, किन्तु अपने पुत्र की अल्पावस्था के कारण अभी तक | दीक्षित नहीं हो सकी है तो उन्होंने भी रूपा देवी को उद्बोधन देते हुए उसकी वैराग्य भावना को पुष्ट किया।
___कुछ दिनों पश्चात् ही रूपादेवी के प्रबल पुण्य के उदय से आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी महाराज की |आज्ञानुवर्तिनी महासती श्री पानकंवर जी, महासती श्री बड़े धनकंवर जी आदि ठाणा विभिन्न क्षेत्रों के भव्यों को जिनवाणी के उपदेशामृत का पान कराते हुए पीपाड़ नगरी में पधारे । रूपादेवी ने अपने पुत्र के साथ महासतियों के दर्शन किये। उनके उपदेशामृत का पान किया। महासती जी ने रूपादेवी को पृथक् से भी जीवन के रहस्य एवं श्रमणी धर्म के महत्त्व का रसास्वादन कराया। बालक हस्ती को भी इस बार महासती जी के दर्शन एवं उपदेश श्रवण से ऐसी आनन्दानुभूति हुई कि वह प्रतिदिन प्रातःकाल सतियों के दर्शन करने के लिए नियमित रूप से उपाश्रय पहुँच | जाता। पौशाल से लौटते ही भोजन से निवृत्त हो स्थानक में जाकर अपना अधिकांश समय महासतियों की सेवा में बैठकर धार्मिक शिक्षण प्राप्त करने एवं जीवन को उच्च बनाने वाली शिक्षाएं ग्रहण करने में ही व्यतीत करने लगा।
बालक हस्ती पर जन्मकाल से ही सुसंस्कारों की गहरी छाप स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती थी। ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात' लोकोक्ति उन पर पूर्णतः चरितार्थ हो रही थी। यद्यपि उन पर वैराग्य के संस्कारों की छाप रत्नगर्भा माता के अध्यात्म-चिन्तन एवं उत्कट वैराग्य के कारण गर्भकाल में ही अंकित हो गई थी, तथापि वह समय-समय पर वृद्धिगत होती गई । महासती जी के द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं से उन संस्कारों को बल मिला। फिर इस समय हस्तिमल्ल आठ वर्ष का हो चला था, अतः उसमें पूर्वापेक्षा चिन्तन की शक्ति भी बढ़ गई थी। ___महासती बड़े धनकंवर जी का पीपाड़ से विहार हो जाने के पश्चात् रूपादेवी अपने घर पर ही अधिकांश समय ज्ञानाभ्यास और धर्माराधन में व्यतीत करने लगी। एक दिन महासती बड़े धनकंवर जी महाराज से सीखे हुए कुछ पाठ बालक ने अपनी माता को सुनाये। उन पाठों को पुत्र के मुख से यथावत् सुनकर रूपा देवी बड़ी प्रमुदित )