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________________ - - पंचम खण्ड : परिशिष्ट ८०७ हुआ। इससे आपका वैराग्य भाव अधिक सुदृढ हो गया। बालक हस्ती भी नाना के परिवार पर महाकाल के साये को देखकर संसार की नश्वरता व असारता का नैसर्गिक बोध पा गए। प्रयत्न करने पर भी जो सत्य समझ में नहीं आता, चरितनायक के हृदय में सहजता से अंकित हो गया। उनके वैराग्य का पोषण करने में माता रूपकंवरजी का भी योगदान रहा। महासती मदालसा ने तो अपने पुत्रों को झूला झुलाने के साथ संस्कार दिये, पर माँ रूपा ने तो अपने संस्कार अपने शिशु को गर्भावस्था से ही देने प्रारंभ कर दिये। ब्रह्मचर्य एवं संसार के स्वरूप का भान जैसे संस्कार आपसे | गर्भ में ही पाकर बालक हस्ती मुनि हस्ती बन कर, अखंड ब्रह्मचारी व भेद-विज्ञान का सच्चा ज्ञाता बना। बालक हस्ती को जन्म देकर माँ निहाल हो गई। आपने बालक के लालन पालन के साथ ही सुसंस्कारों की सीख भी दी व छह वर्ष की उम्र में ही उनके समक्ष संयम की भावना व्यक्त करते हए उन्हें भी इस ओर आकष्ट व प्रेरित किया। धन्य || । है माँ रूपा ! जिन्होंने अपने पत्र को मोह-ममता की शिक्षा देने की बजाय उसके आत्म-कल्याण का चिन्तन किया। महासती श्री बड़े धनकंवर जी म.सा. का सान्निध्य पाकर रूपकंवर का वैराग्य और अपने पुत्र को जिनशासन को समर्पित करने का निश्चय दृढ़ दृढ़तर होते गए। परिजनों की आज्ञा में अवरोध होने पर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय देते हुए स्पष्ट कह दिया-“मैं हस्ती की माँ हूँ, मैं उसे दीक्षा की अनुमति प्रदान करती हूँ।" इससे बालक हस्ती की दीक्षा का मार्ग प्रशस्त हो गया। परिजनों के पास भी रोकने का कोई कारण नहीं बचा। विलम्ब का हेतु नहीं रहने से परिजनों ने अन्तत: रूपकंवर को भी दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी। वि. सं. १९७७ माघ शुक्ला द्वितीय द्वितीया को आपने अजमेर में रत्नवंश के आचार्य पूज्य श्री शोभाचंद जी म.सा. के मुखारविन्द से अपने पुत्र बालक हस्ती के साथ दीक्षा अंगीकार कर महासती श्री धनकंवर जी म.सा. का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। दीक्षा के उपरान्त आपने अपने आपको पूर्णत: गुरुणी माता की सेवा में व रत्नत्रय की साधना में समर्पित कर दिया। आपकी सरलता के कई उदारहण पूज्या महासती वृन्द सुनाते-सुनाते गद्गद् हो जाती हैं। आपकी सर्वोपरि विशेषता मोह पर प्रबल विजय है। २२ वर्षों के संयम-पर्याय में आपने अपने पुत्र आचार्य हस्ती से कभी विशेष बात नहीं की। आचार्य श्री स्वयं फरमाते थे कि मैं तो उस माता का पुत्र हूँ, जिसने दीक्षा लेने के पश्चात् कभी पाँच मिनट भी मुझसे बात नहीं की। इससे महासती रूपकंवर के संयम-जीवन में निष्ठा एवं निर्मोह भावना का बोध होता है। वे मोक्षमार्ग की सच्ची पथिक बनकर आत्म-भावों में स्थिर होने में ही अपना कल्याण मानती थी। पुत्र के आचार्य बनने का उन्हें कोई गर्व नहीं था। निरभिमानता, नि:स्पृहता एवं सरलता से उन्होंने अपनी संयम-साधना को निरन्तर आगे बढ़ाया। संयम-जीवन का पालन करते हुए साध्वी रूपकंवर चरितनायक के मोहविजय में निमित्त बनी।। गुरुणी जी म.सा. के भोपालगढ़ स्थिरवास विराजने पर आपका भी लम्बे समय तक भोपालगढ़ विराजना हुआ और भोपालगढ़ में ही आपने बाईस वर्ष की संयम-पर्याय के साथ मार्गशीर्ष शुक्ला ११ संवत् १९९५ को देवलोक के लिये प्रयाण कर दिया। धन्य है माँ रूपा को जिन्होंने बालक हस्ती को जिनशासन को समर्पित किया। धन्य है महासती रूपा को जिन्होंने अनासक्त रह कर संयम-साधना का सच्चा स्वरूप उपस्थित किया। जब-जब भी आचार्य हस्ती का स्मरण | किया जायेगा, माँ रूपकवंर का नाम समादर व श्रद्वा के साथ याद किया जाता रहेगा।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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