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________________ ७८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ममता त्यागो सुख पाओ रे, यहमूरख नर जन्म गमावे, निन्दा विकथा मन भावे । इनसे ही गोता खाया रे, यह जो दानशील आराधे, तप द्वादश भेदे साधे । शुद्ध मन जीवन सरसाया रे, यह बेला, तेला और अठायां, संवर- पौषध करे मन भाया । शुद्ध पालो शील सवाया रे यह तुम विषय-कषाय घटाओ, मन मलिन भाव मत लाओ । निन्दा विकथा तज माया रे, यह कोई आलस में दिन खोवे, सतरंज तास रमे या सोवे। पिक्चर में समय गमाया रे, यह — संयम की शिक्षा लेना, जीवों की जयणां करना । जो जैन धर्म तुम पाया रे, यह.. जन-जन का मन हरषाया, बालक गण भी हुलसाया । आत्म शुद्धि हित आया रे, यह समता से मन को जोड़ो, ममता का बंधन तोड़ो । है सार ज्ञान का पाया रे, यह सुरपति भी स्वर्ग से आवें, हर्षित हो जिन गुण गावें । जन-जन को अभय दिलाया रे - यह.. 'गजमुनि' निज मन समझावे, यह सोई शक्ति जगावे । अनुभव रस पान कराया रे, यह (४५) सामायिक : शान्ति का द्वार (तर्ज - जिया बेकरार है, हृदय की पुकार है) सामायिक में सार है, टारे विषय विकार है । करलो भैया सामायिक तो निश्चय बेड़ा पार है ॥टेर ॥ भरत भूप ने काच महल में, समता को अपनाया हो विषय-विकार को दूर हटाकर, वीतराग पद पाया हो । । मन को लीना मार है, पाया केवल सार है ॥करलो॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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