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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
संशयालु जन कार्य सिद्धि नहीं पाता २, शंकित मन नहीं इष्ट लाभ करवाता । निज दर्शन में शंका दूषण टालो ॥१॥ कांक्षा दूषण दर्शन का पहचानो २, निष्कांक्षित होना ही सुखकर जानो । कांक्षा से कूणिक ने जन्म गंवाया २, भक्ति पतित हो दुर्गति साज सजाया । सद्दर्शन शोधन हित कांक्षा टारो ॥२॥ मिथ्यादर्शन या ऋद्धि मन भावे २, कांक्षा मोह के उदय अमित दुःख पावे ।। शास्त्र वचन पै शंका कंख निवारे २, निष्कांक्षित आचार दोष को टारे । जिनवाणी आराध शान्ति सुख पा लो ॥३॥ कामदेव ने कांक्षा दूर निवारी २, वीर प्रभु ने करी प्रशंसा भारी । तन, धन, जन का नाश सामने देखा २, पर नहीं किंचित् भी मन में आलेखा । सब मिलकर ऐसी गुण गाथा गा लो ॥४॥ विचिकित्सा दर्शन गुण का दूषण है २, गुण प्रमोद सद्दर्शन का भूषण है । कर्म करत फल में शंका नहिं आना २, निर्वितिगिच्छा अंग तीसरा माना । निस्संशय व्रत करो धैर्य मत डालो ॥५॥ आडम्बर में बने मुग्ध जो मानव २, चमत्कार में बन जाता वह दानव । वीतराग को छोड़ भजे वह रागी २, मूढ़ दृष्टि भव वन भटके वो अभागी । अमूढ़ दृष्टि हो निज स्वरूप संभालो ॥६॥ उपबृंहण आचार पांचवा जानोर, व्यक्ति का व्यक्तित्व गुणों से मानो ।